आत्मबोध
दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : परमात्मा की वेदवाणियों से स्तुति करने का उपदेश
एह्यू षु ब्रवाणि तेऽग्न इत्थेतरा गिरः । एभिर्वर्धास इन्दुभिः॥
(सामवेद – मन्त्र संख्या : 7)
मन्त्रार्थ—
हे (अग्ने) परमात्मन् ! आप (आ इहि उ) मेरे हृदय-प्रदेश में आइये। मैं (ते) आपके लिए (इत्था) सत्य भाव से (इतराः) सामान्य-विलक्षण (गिरः) वेदवाणियों को (सु) सम्यक् प्रकार से, पूर्ण मनोयोग से (ब्रवाणि) बोलूँ, अर्थात् वेदवाणियों से आपकी स्तुति करूँ। आप (एभिः) इन मेरे द्वारा समर्पित किये जाते हुए (इन्दुभिः) भावपूर्ण भक्तिरस-रूप सोमरसों से (बर्धासे) वृद्धि को प्राप्त करें। जैसे चन्द्र-किरणों से समुद्र और वनस्पति बढ़ते हैं, यह ध्वनित होता है, क्योंकि इन्दु चन्द्र-किरणों का भी वाचक होता है ॥
व्याख्या –
मनुष्यकृत वाणियाँ सामान्य होती हैं, पर वेदवाणियाँ परमेश्वरकृत होने के कारण उनसे विलक्षण हैं। उनमें प्रत्येक पद साभिप्राय तथा विविध अर्थों का प्रकाशक है। उपासक लोग यदि उन वाणियों से परमात्मा को भजें और उसके प्रति अपने भक्तिरस-रूप सोमरसों को प्रवाहित करें, तो वह चन्द्र-किरणों से जैसे समुद्र, वनस्पति आदि बढ़ते हैं, वैसे उन भक्तिरसों से तृप्त होकर उन उपासकों के हृदय में अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त करके उन्हें कृतकृत्य कर दे ॥