आत्मबोध
परमात्मा के ज्ञान, सनातन के पवित्रतम ग्रन्थ वेदों में शूद्र के अधिकार तथा स्थिति। क्या वेद में परमात्मा भेदभाव को बढ़ावा देते हैं?
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो बावृधुः सौभगाय । – ऋग्वेद ५/६०/५
भावार्थ :
मनुष्यों में जन्म सिद्ध कोई भेद नहीं है। उनमें कोई बड़ा, कोई छोटा नहीं है। वे सब आपस में बराबर के भाई हैं। सबको मिलकर अभ्युदय पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति के लिये यत्न करना चाहिये।
इससे यह भी विदित होता है कि मनुष्यों में मनुष्यत्व की दृष्टि से वर्णों में कोई जन्म सिद्ध भेद नहीं है। सबकी स्थिति तथा अधिकार बराबर है।
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ब्रह्म राजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय। – यजुर्वेद २६/२
भावार्थ:
इस मन्त्र में शूद्र को नहीं, अपितु मनुष्य मात्र को भी वेद पढ़ने का वैसा ही अधिकार दिया गया है, जैसा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को।
मन्त्र: पंचजनाममहोत्रं जुषन्तां गो जाता उतये यशियाष्ठः पृथिवी नः | पार्थिवाह्यत्वं हसोऽन्तरिक्षं दिव्यात्पात्वस्मान् ॥ – ऋग्वेद १०/५३/५
भावार्थ:
इस मन्त्र में यजमान कहता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद पाँचों प्रकार के मनुष्य मेरे यज्ञ को करें इत्यादि।
उक्त मन्त्रों से स्पष्ट है कि वेद में चारों वर्गों को द्विज बनाने का एक समान अधिकार है। यह अधिकार न होता, तो वर्ण व्यवस्था की आयोजना हो ही नहीं सकती थी; क्योंकि द्विजन्मा बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी वर्ण के कार्य की शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता।
रुचं नो धेहि ब्रह्मणेषुरुचं राजसु नरस्कृधि ||
रुचं विश्येषु शूद्रेषुमयि धेहि रुचा रुचम् ॥ – यजुर्वेद १८/४८
मा कृण देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु ||
प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये ।। – अथर्ववेद १८/६२/१
भावार्थ:
उपरोक्त प्रथम मन्त्र में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों को समान रूप से तेज देने की प्रार्थना की गई है और दूसरे मन्त्र में चारों वर्णों को परस्पर प्रेमी और प्यारा बनने की शिक्षा दी गई है। इससे विदित है कि वेद में चारों वर्णों के साथ एक-सा व्यवहार किया गया है।
शूद्र को भी तेजस्वी बनाने की प्रार्थना इस बात का प्रमाण है कि वेद का शूद्र आर्य है, अनार्य या दस्यु नहीं। यदि वैदिक शूद्र अनार्य अथवा दस्यु दुष्ट होता, तो वेद में उसे तेजस्वी बनाने अथवा उससे प्यार करने की शिक्षा न दी जाती;
अपितु उसका सुधार करने का आदेश किया जाता, जैसा कि नीचे लिखे मन्त्र में किया गया है—
इन्द्रं वर्धन्तो आप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम् । अपघ्नन्तो अरावणः ॥ – ऋग्वेद ०९/६३/५
भावार्थ :
अर्थात् हे कार्यशील विद्वानो! ईश्वर की महिमा को बढ़ाते हुए (आस्तिकता का प्रचार करते हुए) दुष्टों की दुष्टता का नाश करके समस्त संसार को आर्य (श्रेष्ठ) बनाओ।
मागवः पुँश्चली कितवः क्लीवोऽशूद्राऽब्राह्मणान्ते प्राजापत्याः॥ – यजुर्वेद ३०/२२
भावार्थ:
अर्थात् मनुष्यों में निन्दित, व्यभिचारणी, जुआरी, नपुञ्सक, जिनमें शुद्र ( श्रमजीवी कारीगर) और ब्राह्मण (अध्यापक और उपदेशक) नहीं उनको बसाओ और जो राजा के सम्बन्धी हितकारी (सदाचारी) हैं, उन्हें समीप बसाया जाए।
इस मन्त्र में आए हुए “अशूद्राः” और “अब्राह्मणः” शब्द से विदित है कि वेद में वर्णात्मक दृष्टि से शूद्र और ब्राह्मण की स्थिति में कोई भेद नहीं।
ब्राह्मण लौकिक व्यवहार को पढ़ा कर विद्वान् बनाते हैं, तो शूद्र अन्नादि जीवनाधार पदार्थों को उत्पन्न करके प्राणियों को जीवन प्रदान करते हैं।