स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती जी – पुण्यतिथि

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इतिहास में आज का दिन 

आज का दिन इतिहास में 

23 अगस्त : 

पुण्यतिथि— गौरक्षक व ईसाई बने वनवासियों की घरवापसी कराने वाले स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती जी

आरम्भिक जीवन—

स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती जी का जन्म 1924 में ओड़िशा के वनवासी बहुल फूलबाणी (कन्धमाल) जिले के गाँव गुरुजंग में हुआ था। स्वामी जी बचपन से ही दु:खी-पीड़ितों की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देने का संकल्प मन में दृढ़ करते रहे थे। गृहस्थ और दो सन्तानों के पिता होने पर भी उनका यह संकल्प उनसे कभी नहीं छूटा और अन्तत: एक दिन उन्होंने अपने संकल्प को पूरा करने के उद्देश्य से साधना के लिए हिमालय की राह पकड़ ली। 

सन्यासी जीवन के सेवा कार्य—

इतिहास में आज का दिन 

साधना कर स्वामी जी 1965 में वापस लौटे और गोरक्षा आन्दोलन से जुड़ गए। प्रारम्भ में उन्होंने वनवासी बहुल फूलबाणी (कन्धमाल) जिले के गाँव चकापाद को अपनी कर्मस्थली बनाया। कुछ ही वर्षों में वनवासी क्षेत्रों में उनके सेवा कार्य गूँजने लगे। उन्होंने वनवासी कन्याओं के लिए आश्रम, छात्रावास, चिकित्सालय जैसी सुविधाएँ कई स्थानों पर उपलब्ध करायीं और बड़े पैमाने पर सामूहिक यज्ञ के कार्यक्रम सम्पन्न कराए। उन्होंने पूरे जिले के गाँवों की पदयात्राएँ कीं। वहाँ मुख्यत: कन्ध जन-जातीय समाज ही है। उन्होंने उस समाज के अनेक युवक-युवतियों को साथ जोड़ा और स्थान-स्थान का भ्रमण किया। देखते-देखते सबके सहयोग से चकापाद में एक संस्कृत विद्यालय आरम्भ हुआ। जन-जागरण हेतु पदयात्राएँ जारी रहीं। सैकड़ों गाँवों में उन्होंने श्रीमद्भागवत कथाओं का आयोजन किया। एक हजार से भी अधिक भागवत घर स्थापित किए, जिनमें श्रीमद्भागवत की प्रतिष्ठा की। 1986 में स्वामी जी ने जगन्नाथपुरी में विराजमान भगवान् जगन्नाथ स्वामी के विग्रहों को एक विशाल रथ में स्थापित करके उड़ीसा के वनवासी जिलों में लगभग तीन मास तक भ्रमण कराया। इस रथ के माध्यम से लगभग 10 लाख वनवासी नर-नारियों ने जगन्नाथ भगवान् के दर्शन किए और श्रद्धापूर्वक पूजा की। इसी रथ के माध्यम से स्वामी जी ने सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध एवं नशाबन्दी व गोरक्षा के लिए जन-जागरण किया। इससे वनवासियों में चेतना एवं धर्मनिष्ठा जागृत हुई।

अटल प्रण—

सन् 1970 से दिसम्बर 2007 तक स्वामी जी पर 8 बार जानलेवा आक्रमण किए गए। मगर इन आक्रमणों के बाद भी स्वामी जी का प्रण अटूट रहा। वह प्रण था— _मतान्तरण रोकना है, जनजातीय अस्मिता जगानी है।_ *स्वामी जी कहते थे, “वे चाहे जितना प्रयास करें, ईश्वरीय कार्य में बाधा नहीं डाल पाएँगे।

प्रण का आरंभ 

26 जनवरी, 1970 को 25-30 ईसाई तत्त्वों के एक दल ने उनके ऊपर आक्रमण किया। स्वामी जी ने एक विद्यालय में शरण लेकर उस संकट को टाला, किन्तु उस दिन उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि मतान्तरण करने वाले तत्वों और उनकी हिंसक प्रवृत्ति को उड़ीसा से समाप्त करना ही है। 

जलेसपट्टा आश्रम—

 लगभग 42 वर्षों से वे वञ्चितों की सेवा कर रहे थे। उन्होंने चकापाद के वीरूपाक्ष पीठ में अपना आश्रम स्थापित किया। उनकी प्रेरणा से 1984 में कन्धमाल जिले में ही चकापाद से लगभग 50 किलोमीटर दूर जलेसपट्टा नामक घनघोर वनवासी क्षेत्र में कन्या आश्रम, छात्रावास तथा विद्यालय की स्थापना हुई। एक हनुमान मन्दिर के निर्माण का भी संकल्प लिया गया। अब यहाँ कन्या आश्रम छात्रावास में सैकड़ों बालिकाएँ शिक्षा ग्रहण करती हैं। 

स्वामी जी की हत्या—* जलेसपट्टा आश्रम में 23 अगस्त, 2008 को जन्माष्टमी का कार्यक्रम चल रहा था। स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती अराधना में लीन थे। कुछ हथियारबन्द लोगों ने आश्रम में घुसकर पहले स्वामी जी को गोली मारी, फिर उनके मृत शरीर को कुल्हाड़ी से काट दिया। उस दिन आश्रम में स्वामी लक्ष्माणानन्द सरस्वती सहित कुल 5 साधुओं की हत्या इसी प्रकार से की गई। इन हत्याओं के पीछे ईसाई मिशनरियों का हाथ बताया जाता है। 

सन्त समाज के द्वारा किए गए कार्यों को (जिनके परिणाम में उनकी हत्यायें की जाती हैं) हिन्दू समाज द्वारा कभी भी नहीं भुलाना चाहिए।* *सेक्युलरिज्म का झूठा चश्मा पहनने के बजाए सभी हिन्दुओं को सत्यता से आँखें मिलानी चाहिए एवं ऐसे धर्मनिष्ठ साधु-सन्तों को कोटिशः नमन करते हुए अपने धर्म पर अडिग रहना चाहिए।

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