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आज का इतिहास 

29 दिसंबर 

गुरु गोविंद सिंह जी

आज की गाथा है सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह जी की जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा, अपने पिता की शहादत का बदला लिया, खालसा पंथ की स्थापना की, साथ ही संकल्पित प्रभुसत्तासम्पन्न लोक राज्य की नींव रखी। तो आइए संक्षेप में पढ़ते हैं गुरु गोविंद सिंह जी के बारे में के बारे में जिनका नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है।

गुरु गोविंद सिंह जी का प्रारंभिक जीवन

गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म  हिंदू पंचांग के अनुसार पौष माह के शुक्ल पक्ष को सप्तमी को हुआ था और अंग्रेज़ी कैलेंडर के हिसाब से उनका जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना में  हुआ था गुरु तेग बहादुर और उनकी पत्नी गुजरी के घर हुआ था। जन्म के समय उनका नाम गोबिंद राय रखा गया था, वे दंपति की एकमात्र संतान थे। उनके पिता सिखों के 9वें गुरु थे और गोबिंद राय के जन्म के समय असम में धर्म प्रचार यात्रा पर थे। उनके पिता अक्सर यात्रा पर ही रहते थे इसलिए उन्होंने स्थानीय राजा के संरक्षण में अपने परिवार को छोड़ दिया। 

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29 दिसंबर का इतिहास 

 1670 में गुरु तेग बहादुर चक नानकी (आनंदपुर) गए और अपने परिवार से उन्हें मिलाने का आह्वान किया। इसके बाद 1671 में बालक गोबिंद राय ने अपने परिवार के साथ दानापुर से यात्रा शुरू की और यात्रा पर ही अपनी बुनियादी शिक्षा प्राप्त करना शुरू कर दिया। उन्होंने फारसी, संस्कृत और मार्शल आर्ट युद्ध कौशल सीखा। फिर वह और उनकी माँ आखिरकार 1672 में आनंदपुर में अपने पिता के साथ जुड़ गए जहाँ उनकी आगे की शिक्षा जारी रही।

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 खालसा पंथ की स्थापना और गुरु गोबिंद जी का संघर्ष

सन 1675 की शुरुआत में कश्मीरी हिंदुओं को मुगलों द्वारा तलवार की नोंक पर जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया जा रहा था। तब उनका कुछ कश्मीरी पंडितों का समूह हताशा में आनंदपुर आया और गुरु तेग बहादुर से मदद मांगी। कश्मीर में हिंदुओं की दुर्दशा का पता चलने पर गुरु तेग बहादुर हस्तक्षेप करने के लिए राजधानी दिल्ली चले गए। किंतु जाने से पहले उन्होंने अपने नौ साल के बेटे गोबिंद राय को सिखों का उत्तराधिकारी और दसवां गुरु नियुक्त किया। उधर दिल्ली पहुंचने पर गुरु तेग बहादुर को मुगल अधिकारियों ने गिरफ्तार कर लिया और उन्हें इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए कहा गया, और उनके मना करने पर उन पर अत्याचार किये गए। किंतु गुरु तेग बहादुर ने परिवर्तित होने के बजाय सभी यातनाओं को स्वीकार किया, अंत में मुगलों ने उन्हें असंख्य यातनाएं देते हुए उनके प्राण ले लिए। गुरु तेग बहादुर के वीरगति को प्राप्त होने की सूचना गोबिंद सिंह जी तक पहुंची, 9 वर्षीय बालक गोबिंद ने जब सभी के मुख पर इस त्रासदी का दुःख देखा तो उन्होंने आगे बढ़कर कहा, ये समय दुख मनाने का नहीं है ये समय है दुश्मन को धूल चटाने का। इतिहासकार लिखते हैं कि तभी उन्होंने प्रसिद्ध उद्घोष किया जिसे आज भी वीर रस प्रवाहित करने के लिए पढ़ा जाता है,

“सवा लाख से एक लड़ाऊं,

चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं,

तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं;”

गोबिंद राय को औपचारिक रूप से 1676 में बैसाखी के दिन (वार्षिक फसल कटाई का त्योहार) गुरु बनाया गया था। वह एक बहुत ही बुद्धिमान और बहादुर बालक थे, जिन्होंने बड़ी त्रासदी के उपरांत भी विवेक और परिपक्वता के साथ गुरु पदवी की जिम्मेदारी संभाली। मुगलों के साथ तनावपूर्ण संबंधों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने समर्पित योद्धाओं की एक मजबूत सेना बनाने पर ध्यान केंद्रित किया, जो मानवता रक्षा के महान उद्देश्य के लिए लड़ते हुए अपने जीवन को खुशी से बलिदान करेंगे। उन्होंने सभी सिख अनुयायियों से बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1699 को आनंदपुर में एकत्रित होने का आव्हान किया। बैसाखी के दिन खालसा जो कि सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया। सभा में उन्होंने सबके सामने पूछा- कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए तैयार हो गया, तब गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने उस भीड़ से पुनः वही सवाल दोबारा पूछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति तैयार हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बाहर निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, तो कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें ‘पंज प्यारे या प्रथम खालसा’ का नाम दिया। उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और पतासा मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। 

पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया, जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने क शब्द के पांच महत्व खालसा के लिए समझाये और कहा – केश, कंगा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा खालसा के लिए महत्वपूर्ण हैं। इसके बाद उन्होंने पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूर्ण किया तथा उसे गुरु रूप में सुशोभित किया। अपनी सेना का निर्माण कर उन्होंने मुगलों एवं उनके सहयोगियों के साथ 14 बार युद्ध लड़े और सबमें विजयी बनकर उभरे। चूंकि धर्म के लिए उन्होंने समस्त परिवार का बलिदान किया था, इसलिए उन्हें ‘सरबंसदानी’ भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश गुरु, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी प्रचलित हुए। 

खालसा पंथ की स्थापना के बाद, गुरु गोबिंद सिंह और उनके सिख योद्धाओं ने मुगल सेनाओं के खिलाफ कई बड़ी लड़ाईयां लड़ीं. भानगनी की लड़ाई, बदायूं की लड़ाई, गुलेर की लड़ाई, निर्मोहगढ़ की लड़ाई, बसोली की लड़ाई, आनंदपुर की लड़ाई और मुक्तसर की लड़ाई उन लड़ाइयों में से थी। औरंगजेब ने छल से गुरु के दो बड़े बेटों सहित कई बहादुर सिखों को बंदी बना। उनके छोटे बेटों को भी मुगल सेनाओं ने पकड़ लिया और उन्हें इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए विवश किया। युवा लड़कों ने इनकार कर दिया और एक दीवार के अंदर उन्हें जिंदा चुनवाकर उनकी हत्या कर दी गई। अक्टूबर सन 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ कुछ समय बाद उनको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त हो चुका था।

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1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो गई और उसका बेटा बहादुर शाह सम्राट बन गया, किंतु बहादुर शाह गुरु गोबिंद सिंह का सम्मान करता था और उनके प्रवचनों में शामिल होता था। हालांकि, सरहिंद के नवाब वजीर खान को सम्राट और गुरु के बीच दोस्ताना संबंध पसंद नहीं थे और उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह की हत्या की योजना तैयार की। 1708 में सरहिंद के नवाब वजीर खान ने दो पठानों, जमशेद खान और वासिल बेग को गुरु की हत्या के लिए भेजा। जमशेद खान ने गुरु को दिल के नीचे घाव दिया। यद्यपि घाव का इलाज एक यूरोपीय सर्जन द्वारा किया गया था, लेकिन यह कुछ दिनों के बाद फिर से खुल गया और गहरा रक्तस्राव होने लगा। गुरु गोबिंद सिंह को आभास हो गया था कि उनका अंत निकट है और उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। और 7 अक्टूबर 1708 को नांदेड़ में उनका स्वर्गवास हो गया।

गुरु गोविंद सिंह जी एक महान संत सिपाही थे जिन्होंने सिख पंथ को एक नया स्वरूप दिया। अपने पिता की निर्मम हत्या के बाद भी वो टूटे नहीं अपितु खालसा पंथ के द्वारा सैन्य शक्ति का निर्माण किया जिसने क्रूर औरंगजेब एवं उसके सहयोगियों की सेना को 14 बार धूल चटाई। ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनके बारे में इतिहास के किताबों में कम ही पढ़ाया गया है। ऐसे कम ही लेख मिलते हैं जो उनके बारे में हमें बताए। किंतु गुरु गोविंद सिंह जी के बलिदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। धर्म की रक्षा के लिए अपने एवं प्रियजनों के प्राणों को न्योछावर करने वाले गुरु गोविंद सिंह को शत्- शत् नमन करते हैं।

वामपंथीं इतिहास पढ़कर हम इतने पागल हो गए है कि हमने अपने असली इतिहास से मुँह फेर लिया है 🙏🙏 सच जानिए और अपने लोगो के बलिदान को व्यर्थ ना जाने दे

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