आत्मबोध

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में मनुष्यों को वीरत्व धारण कर शत्रुओं को जीतने का उपदेश*

मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः परावत आ जगन्था परस्याः। सृकꣳ सꣳशाय पविमिन्द्र तिग्मं वि शत्रून् ताढि वि मृधो नुदस्व॥

(सामवेद – मन्त्र संख्या : 1873)

मन्त्रार्थ—

हे (इन्द्र) वीर मानव ! तू (भीमः) भयङ्कर, (कुचरः) भूमि पर विचरनेवाले, (गिरिष्ठाः) पर्वत की गुफा में निवास करनेवाले (मृगः न) शेर के समान (भीमः) दुष्टों के लिए भयङ्कर, (कुचरः) भू-विहारी और (गिरिष्ठाः) पर्वत के सदृश उन्नत पद पर प्रतिष्ठित हो। (परावतः) सुदूर देश से (परस्याः) और दूर दिशा से (आ जगन्थ) शत्रुओं के साथ युद्ध करने के लिए आ। (सृकम्) गतिशील, (तिग्मम्) तीक्ष्ण (पविम्) वज्र को, शस्त्रास्त्रसमूह को (संशाय) और अधिक तीक्ष्ण करके (शत्रून्) शत्रुओं को (वि ताढि) विताड़ित कर, (मृधः) हिंसकों को (वि नुदस्व) दूर भगा दे

व्याख्या

मनुष्यों को चाहिए कि सिंह के समान वीरता का सञ्चय करके जैसे बाहरी शत्रुओं(अधर्मियों) को पराजित करें वैसे ही आन्तरिक शत्रुओं को भी निर्मूल करें और उच्च पदों पर प्रतिष्ठित हों।

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