इतिहासबोध

त्याग, स्वाभिमान, वीरता, शौर्य, राष्ट्रभक्ति, सुशासन और स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष के प्रतीक हिन्दू हृदय सम्राट् महाराणा प्रताप के विषय में वामी-इस्लामी फर्जी इतिहासकारों द्वारा फैलाई गई कुछ भ्रान्तियाँ, जिनको हर हिन्दू के मन से दूर किया जाना चाहिए—भाग १(1)*

*भाग १(1)  हल्दीघाटी युद्ध की भ्रान्तियाँ और उनका निराकरण⤵️*

अकबर के दरबार का इतिहासकार *अब्दुर क़ादर बदायुँनी* ने *मुन्तकब उत्त तवारिख* नामक पुस्तक लिखी। बदायुँनी वर्णन करता है,  *”इस युद्ध में मुगलों की सेना की संख्या 5000 व मेवाड़ी सेना की संख्या 3000 थी।”*

*”हल्दीघाटी युद्ध में दर्रे में पहला हमला इतना भयंकर हुआ था कि हमारी सेना (मुगलों की सेना) बनास नदी के किनारे 7 मील पीछे भागी थी।”*   एक बात बताइए हारने वाली सेना भागती है या जीतने वाली

बदायुँनी वर्णन करता है, *”बदायुँनी ने आसफ खाँ से पूछा, “मारना किसे है?” हमारी सेना भी आ रही है और मेवाड़ की सेना भी आ रही है। तो आसफ खाँ ने कहा आँखें बन्द करके तीर चला दो, जिस भी तरफ का राजपूत मरेगा इस्लाम ही मजबूत होगा।”*

बदायुँनी लिखता है, *”युद्ध के बाद गोगुन्दा में जब मुग़ल सेना ठहरी थी, तो उनमें इतना डर था कि प्रताप की सेना कहीं रात में हमला न कर दें इसलिए चारों तरफ दीवार चिनवायी थी।”* अब सोचने वाली बात ये है कि जीता हुआ पक्ष डर में रहता है या हारा हुआ पक्ष।

बदायुँनी पुनः लिखता है, *”जब मुगल सेना वापस गोगुन्दा से अजमेर जा रही थी (भीषण गर्मी में) तब मेवाड़ी सेना ने हमारी हालत खराब कर दी थी। हम जगह-जगह गाँव में भीलों द्वारा लूटे जा रहे थे।”*     अब बताइए कि जीते हुए पक्ष को कौन लूट सकता है?

 बदायुँनी यह भी लिखता है कि, *”जब मानसिंह और आसफ खाँ युद्ध के बाद अकबर के दरबार में पहुँचते हैं, तो अकबर उन दोनों का दरबार में आना बन्द करवा देता है।”* भला अपने जीते हुए सेनापतियों को दरबार से बाहर निकालने का काम कौन-सा राजा करता है?

*जून, १५७६ (1576)— हल्दीघाटी* हार जाने के बाद *अक्टूबर, १५७६ (1576) में अकबर स्वयं मेवाड़ पर आक्रमण करता है।*

*हल्दीघाटी युद्ध के तुरन्त बाद मुगल शासक को मेवाड़ पर आक्रमण क्यों करना पड़ा?* यह बात सीधे-सीधे दर्शाती है कि हल्दीघाटी युद्ध में विजय महाराणा प्रताप की हुई थी।

*हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा ने एक वार में बहलोल खाँ को घोड़े समेत दो हिस्सों में चीर दिया।* कवि ने कहा *”जरासंध बहलोल के वध में ये वति रेख, भीम कियो दो भुज नते, पाथल ने करे एक”* (स्रोत: पाथल — राणा प्रताप)

*हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप के इतने ताम्रपत्र* मिले हैं, जो यह बताते हैं कि प्रताप ने वह भूमि लोगों को दान की थी। *संताणा का ताम्रपत्र, ओड़ा गाँव का ताम्रपत्र, मोहियाचारयण का ताम्रपत्र, मण्डेर वाला ताम्रपत्र।*

*ये सब इस ओर इंगित करते हैं कि हल्दीघाटी के आस-पास की भूमि महाराणा प्रताप के पास थी, तभी तो उन्होंने दान की। यदि प्रताप हारे होते तो वे भूमि दान कैसे दे सकते थे?*

*हल्दीघाटी युद्ध को तो अनिर्णायक बताकर* गुमराह किया गया व एक महत्वपूर्ण युद्ध *दिवेर के युद्ध को इतिहास से ही मिटा दिया गया* हमारे वामी-इस्लामी स्वघोषित  इतिहासकारों द्वारा। अगले भाग में हम तब अकबर और आज वामी-इस्लामी इतिहासकारों की नींद उड़ाने वाले दिवेर के अद्भुत युद्ध का इतिहास सामने रखेंगे।

*इस श्रृंखला में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के विषय में हिन्दू-घृणा से भरे वामी-इस्लामी इतिहासकारों की फैलाई भ्रान्तियों को हिन्दुओं के मन से निकालने के लिए कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को सामने लाने का प्रयास किया गया है, ताकि आत्मकुण्ठा में डूबे हिन्दू महाराणा के गौरवपूर्ण इतिहास से परिचित होकर गौरवान्वित हो उनके गुणों को धारण करने के लिए प्रयासरत हों।

२ दिवेर का ऐतिहासिक युद्ध, जिसमें हुई भयंकर पराजय से अकबर आजीवन राणा से भयाक्रान्त रहा :*

हल्दीघाटी युद्ध के बाद शाहबाज खाँ को प्रताप के विरुद्ध बार-बार भेजा गया, परन्तु वह असफल हुआ। अब्दुल रहीम खानखाना — बार-बार भेजा गया— असफल।

चार ठिकाने— दिवेर, देबारी, देसुरी, देवल— महाराणा प्रताप को पर्वतों में घेरा जाता है। दिवेर — राजसमन्द से अजमेर जाने का मार्ग, जहाँ से रसद आया करती थी एवम् जहाँ पर सुल्तान खाँ स्वयं अपनी चौकी लगाकर बैठा था।

*दशहरा का दिन— शस्त्र पूजा के बाद तलवार म्यान में न रखकर छोटे-मोटे युद्ध करने की परम्परा थी, जिसे टीका दौड़ प्रथा कहा जाता था। महाराणा प्रताप ने मुगलों के चार ठिकानों में से सबसे बड़ा व मजबूत ठिकाना दिवेर पर आक्रमण करने को चुना। सारे मन्त्रियों की राय थी कि देबारी, देसुरी, देवल कमजोर ठिकाने हैं, उन पर आक्रमण करना चाहिए, जिससे टीका दौड़ भी हो जाएगी; परन्तु महाराणा ने कहा, “मुगलों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि दिवेर पर आक्रमण हो जाएगा, इसलिए हम दिवेर पर आक्रमण करेंगे।”*

*अक्टूबर १५८२ का दिवेर आक्रमण भारत की प्रथम सर्जिकल स्ट्राइक मानी जा सकती है, जिसमें मुगलों की सेना पर इतना भयंकर आक्रमण किया गया कि एक भी मुगल जीवित नहीं लौट सका। जेम्स टॉड के द्वारा दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मैराथॉन की संज्ञा दी गई है।*

इतने भयंकर युद्ध में बाँसवाड़ा, ईडर व प्रतापगढ़ की सेना महाराणा प्रताप की ओर से लड़ी थी, जिससे प्रताप की संगठनवादी छवि उजागर होती है। इसलिए *वामपंथियों इस्लामियों के लिखे फर्जी इतिहास में इतने महान् युद्ध का वर्णन बहुत छोटा है या फिर वर्णन है ही नहीं।*

*इसी दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप के पुत्र महाराणा अमरसिंह ने मुगल सेनापति सुल्तान खाँ को भाला मारा, तो सुल्तान खाँ को चीरते हुए भाला धरती में धँस गया।* जब महाराणा प्रताप ने घायल सुल्तान खाँ से अन्तिम इच्छा पूछी, तो उसने उस योद्धा को देखने की इच्छा व्यक्त की जिसने उसे भाला मारा था। प्रताप ने समय बचाने के लिए यह कहा कि उनके पास खड़े सैनिक ने ही भाला मारा है, तो *सुल्तान खाँ ने कहा, “यह हो ही नहीं सकता; क्योंकि उस बालक की आँखों में जो गुस्सा है, मैंने देखा है। वह अलग योद्धा है, उसे बुलाओ।”* जब अमरसिंह को बुलाया गया और राणा ने कहा कि यह मेरा पुत्र है, तो सुल्तान खाँ ने कहा *धन्य हो महाराणा।* 

*दिवेर के युद्ध के ठीक अगले वर्ष १५८३ में सिरोही के राव सरताण ने दांताणी के युद्ध में मुगलों को उसी प्रकार मारा।* यह बात ज्ञात होने पर महाराणा ने प्रसन्नता में अपनी पौत्री का विवाह राव सरताण से करने का निर्णय लिया। 

*दिवेर युद्ध के बाद मुगल सेनापतियों ने भय से मेवाड़ आना बन्द कर दिया।* *१५८५ में जगन्नाथ कच्छवाहा ने अन्तिम आक्रमण किया मेवाड़ पर। कुछ हाथ ना लगने के कारण वह चला गया।* *इसके बाद मेवाड़ में मुगलों के आक्रमण बन्द हो गये। १२ वर्षों तक अकबर का कोई आक्रमण नहीं हुआ

भ्रांति ३ : क्या वामी-इस्लामी इतिहास भ्रष्टकों के फ़र्ज़ी इतिहास पर अंधा विश्वास करने के कारण हम ये मान गलत नहीं कर रहे कि महाराणा के इतने दुर्दिन आए कि उन्हें परिवार को घास की रोटी खानी पड़ी?

कुम्भलगढ़ से ऋषभदेव तक ९० मील का क्षेत्र तथा देबारी से सिरोही तक ७० मील चौड़ा क्षेत्र छप्पन, बानसी से लेकर धारियावाद का क्षेत्र राणा प्रताप के पास था। इतने बड़े क्षेत्र में इतनी अधिक मात्रा में कृषि होती थी कि घास की रोटियों वाली बात सार्थक हो ही नहीं सकती।

भ्रांति ४ : क्या हल्दीघाटी की कथित हार के कारण महाराणा प्रताप एक समय इतने वैभवहीन हो गए थे कि केवल भामाशाहजी के दान के कारण वे अपनी सेना पुनर्गठित कर पाए?*

सभी जानते हैं कि भामाशाहजी ने प्रताप को अपनी सम्पत्ति दी थी। भामाशाह के पिता भारमल पहले ही मेवाड़ आ गए थे, जो राणा प्रताप के खजाञ्ची हुआ करते थे, तो भामाशाह के पास जो भी धन था, वह राणा प्रताप व मेवाड़ का खजाना था, इस बात को नकारा नहीं जा सकता। हालांकि उस खजाने व दान में भामाशाह एवम् उनके भाई ताराचन्द की स्वयं की निजी सम्पत्ति भी थी, इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता। भामाशाह व ताराचन्द को स्वामी भक्ति व निष्ठा के लिए युगों-युगों तक याद किया जाना चाहिए। भामाशाह ने मृत्यु के समय अपनी पत्नी से कहा, *”बही देकर जा रहा हूँ, इसमें मेवाड़ का पूरा हिसाब है, महाराणा तक पहुँचा देना।”* ऐसे व्यक्ति की निष्ठा व ऐसे निष्ठावान व्यक्ति को सदैव याद किया जाना चाहिए।

*इस श्रृंखला में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के विषय में हिंदू घृणा से भरे वामी-इस्लामी इतिहासकारों की फैलाई भ्रांतियों को हिंदुओं के मन से निकालने के लिए कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को सामने लाने का प्रयास किया गया है ताकि आत्मकुंठा में डूबे हिंदू महाराणा के गौरवपूर्ण इतिहास से परिचित होकर गौरवान्वित हो उनके गुणों को धारण करने के लिए प्रयासरत हों।*

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