महान धर्मरक्षक – पूजनीय सन्त श्री रविदास जी
5 फ़रवरी
इतिहासबोध
*माघ पूर्णिमा — जन्म जयन्ती : समरसता व सद्भाव धर्मनिष्ठा के प्रतीक पूजनीय सन्त श्री रविदास जी*
*महान धर्मरक्षक सन्त जिनके विचारों व रचनाओं ने समाज में आध्यात्मिक चेतना जागृत कर मानवजाति के कल्याण का मार्ग दिखाया। एकता, समानता व कर्म प्रधानता और धर्मनिष्ठा के उनके संदेश सदैव हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे।*
_”वर्तमान में देश की स्थिति चिंतनीय होती जा रही है क्योंकि भारत में कुछ राष्ट्रविरोधी ताकतों के इशारे पर असामाजिक तत्वों द्वारा हमारे दलित समाज को उकसाया जा रहा है कि तुम हिन्दू नही हो तुम बौद्ध हो, ईसाई हो जाओ, मुस्लिम हो जाओ और जो हमारे संत रविदास थे वो भी हिंदू नहीं थे, मुसलमान और दलित भाई-भाई है और हिन्दू हमारे दुश्मन हैं आदि आदि इस भ्रामक तरीके से भारत को टुकड़े-टुकड़े करने का भयंकर षड्यंत्र चल रहा है। आज जो भी विधर्मी हम दलितों को हिन्दू समाज से तोड़ रहे हैं वो बड़े भयंकर पाप के भागीदार हो रहे हैं, हमको महान धर्मरक्षक हिन्दू संत रविदासजी का इतिहास ठीक से पढ़ना चाहिए ताकि हमारे धर्मनिष्ठ रहे दलित समाज को कोई भी विधर्मी हमारे मूल धर्म हिन्दू धर्म से दूर न कर सके—”_
भारत के महान संत रविदास (रैदास) का जन्म वि.सं. १४३३ (१३७६ ई.) में माघ की पूर्णिमा को हुआ था पी। गुरू रविदास जी का जन्म काशी में चर्मकार (चमार) कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम संतो़ख दास (रग्घु) और माता का नाम कलसा देवी बताया जाता है। जिस दिन उनका जन्म हुआ उस दिन रविवार था इस कारण उन्हें रविदास कहा गया। भारत की विभिन्न प्रांतीय भाषाओं में उन्हें रोईदास, रैदास व रहदास आदि नामों से भी जाना जाता है।
प्रारम्भ से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। नौ वर्ष की नन्ही उम्र में ही परमात्मा की भक्ति का इतना गहरा रंग चढ गया कि उनके माता-पिता भी चिंतित हो उठे । उन्होंने उनका मन संसार की ओर आकृष्ट करने के लिए उनकी शादी करा दी और उन्हें बिना कुछ धन दिये ही परिवार से अलग कर दिया फिर भी रविदासजी अपने पथ से विचलित नहीं हुए।
संत रविदास जी पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे। संत रविदास जी ने अपनी वाणी के माध्यम से आध्यात्मिक, बौद्धिक व सामाजिक क्रांति का सफल नेतृत्व किया। उनकी वाणी में निर्गुण तत्व का मौलिक व प्रभावशाली निरूपण मिलता है। रैदासजी ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे।
उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब भारत में मुगलों का क्रूर शासन था चारों ओर गरीबी, कुशासन व अधर्म का बोलबाला था। युग प्रवर्तक स्वामी रामानंद उस काल में काशी में पंच गंगाघाट में रहते थे। वे सभी को अपना शिष्य बनाते थे। रविदास ने उन्हीं को अपना गुरू बना लिया। स्वामी रामानंद ने उन्हें रामभजन की आज्ञा दी व गुरूमंत्र दिया “रं रामाय नमः“। गुरूजी के सान्निध्य में ही उन्होनें योग साधना और ईश्वरीय साक्षात्कार प्राप्त किया। उन्होनें वेद, पुराण आदि का समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया। कहा जाता है कि भक्त रविदास का उद्धार करने के लिये भगवान स्वयं साधु वेश में उनकी झोपड़ी में आये। लेकिन उन्होनें उनके द्वारा दिये गये पारस पत्थर को स्वीकार नहीं किया।
एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास (संत रविदास) के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि– *मन चंगा तो कठौती में गंगा।
संत रविदास जी की महानता और भक्ति भावना की शक्ति के प्रमाण इनके जीवन के अनेक घटनाओ में मिलती है है जिसके कारण उस समय का सबसे क्रूर मुगल साम्राज्य भी संत रविदास जी के नतमस्तक था और
उस समय मुस्लिम शासकों द्वारा प्रयास किया जाता था कि येन केन प्रकारेण हिंदुओं को मुस्लिम बनाया जाये। संत रविदास की ख्याति लगातार बढ़ रही थी, उनके लाखों भक्त थे जिनमें हर जाति के लोग शामिल थे। ये देखते हुए उस समय का परिद्ध मुस्लिम ‘सदना पीर’ उनको मुसलमान बनाने आया था, उसका सोचना था कि संत रैदास को मुस्लिम बनाने से उनके लाखो भक्त भी मुस्लिम हो जायेंगे ऐसा सोचकर उनपर अनेक प्रकार के दबाव बनाये जाते थे। किन्तु संत रविदास की श्रद्धा और निष्ठा हिन्दू धर्म के प्रति अटूट रहती है।
सदना पीर ने शास्त्रार्थ करके हिंदू धर्म की निंदा की और मुसलमान धर्म की प्रशंसा की। संत रविदासने उनकी बातों को ध्यान से सुना और फिर उत्तर दिया और उन्होनें इस्लाम धर्म के दोष बताते हुआ कहा कि—
“*वेद धरम है पूरन धरमा वेद अतिरिक्त और सब भरमा।*
*वेद वाक्य उत्तम धरम, निर्मल वाका ग्यान*
*यह सच्चा मत छोड़कर, मैँ क्योँ पढूँ कुरान*
*श्रुति-सास्त्र-स्मृति गाई, प्राण जाय पर धरम न जाई।।”*
आगे कहते हैं कि मुझे कुरानी बहिश्त की हूरे नहीँ चाहिए क्योँकि ये व्यर्थ
बकवाद है—
*कुरान बहिश्त न चाहिए मुझको हूर हजार।*
*वेद धरम त्यागूँ नहीँ, जो गल चलै कटार।*
*वेद धरम है पूरन धरमा,करि कल्याण मिटावे भरमा।*
*सत्य सनातन वेद हैँ, ज्ञान धर्म मर्याद।*
*जो ना जाने वेद को वृथा करे बकवाद।*
*संत रविदास के तर्को के आगे सदना पीर टिक न सका । सदना पीर आया तो था संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिये लेकिन वह स्वयं हिंदू बन बैठा। रामदास नाम से इनका शिष्य बन गया।* यानि स्वयं इस्लाम छोड़ दिया। दिल्ली में उस समय सिकंदर लोदी का शासन था। उसने रविदास के विषय में काफी सुन रखा था। सिकंदर लोदी ने संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिये दिल्ली बुलाया और उन्हें मुसलमान बनने के लिये बहुत सारे प्रलोभन दिये। धर्मनिष्ठ संत रविदासजी ने निर्भीक शब्दों में इसकी निंदा की। सुल्तान सिकन्दर लोदी को जवाब देते हुए रविदासजी ने वैदिक हिन्दू धर्म को पवित्र गंगा के समान कहते हुए इस्लाम की तुलना तालाब से की—
*मैँ नहीँ दब्बू बाल गंवारा, गंग त्याग गहूँ ताल किनारा।*
*प्राण तजूँ पर धर्म न देऊँ, तुमसे शाह सत्य कह देऊँ।*
*चोटी शिखा कबहुँ तहिँ त्यागूँ, वस्त्र समेत देह भल त्यागूँ।*
*कंठ कृपाण का करौ प्रहारा, चाहे डुबाओ सिँधु मंझारा।*
संत रविदास की बातों से चिढ़कर सिकंदर लोदी संत रविदास को जेल में डाल दिया। सिकंदर लोदी ने कहा कि यदि वे मुसलमान नहीं बनेंगे तो उन्हें कठोर दंड दिया जायेगा। जेल में भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिये और कहा कि धर्मनिष्ठ सेवक ही आपकी रक्षा करेंगे। अगले दिन जब सुल्तान सिकंदर नमाज पढ़ने गया तो सामने रविदास को खड़ा पाया। उसे चारो दिशाओं में संत रविदास के ही दर्शन हुये। यह चमत्कार देखकर सिकंदर लोदी घबरा गया। लोदी ने तत्काल संत रविदास को रिहा कर दिया और माफी मांग ली। संत रविदास के जीवन मेें ऐसी बहुत सारी चमत्कारिक घटनाएं घटी।
*संत रविदास जाति से चर्मकार थे। लेकिन उन्होनें कभी भी जन्मजाति के कारण अपने आप को हीन नहीं माना। उन्होनें परमार्थ साधना के लिये सत्संगति का महत्व भी स्वीकारा है। वे सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उनके आगमन से घर पवित्र हो जाता है। उन्होने श्रम व कार्य के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की तथा कहा कि अपने जीविका कर्म के प्रति हीनता का भाव मन में नहीं लाना चाहिये। उनके अनुसार श्रम ईश्वर के समान ही पूजनीय है।*
संत रविदास ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भारत भ्रमण किया करके समाज को उत्थान की नयी दिशा दी। संत रविदास साम्प्रदायिकता पर भी चोट करते हैं। उनका मत है कि सारा मानव वंश एक ही प्राण तत्व से जीवंत है। वे सामाजिक समरसता के प्रतीक महान संत थे। वे मदिरापान तथा नशे आदि के भी घोर विरोधी थेे तथा इस पर उपदेश भी दिये हैं।
चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या बनीं वहीं चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी बनी हुई है। समाज में सभी स्तर पर उन्हें सम्मान मिला। वे महान संत कबीर के गुरूभाई तथा मीरा के गुरू थे। श्री गुरुग्रंथ साहिब में भी उनके अनेक पदों का समायोजन किया गया है। आज के सामाजिक वातावरण में समरसता, धर्मनिष्ठा का संदेश देने के लिये संत रविदासजी का जीवन आज भी प्रेरक हैं।
राष्ट्र को तोड़ने के लिए हिन्दू समाज से दलित समाज को अलग करने के लिए राष्ट्र विरोधी ताकतों द्वारा उकसाया जा रहा है, उनके लिए धर्मनिष्ठ संत रविदासजी का जीवन प्रेरणास्रोत है, सभी हिन्दू सावधान रहें है कोई भी विधर्मी हमें जाति-पाति में तोड़ता हो तो उसको धर्मरक्षक संत रविदासजी का जीवन चरित्र देकर समझा दें। धर्मरक्षक संत जिन्होंने हमें क्रूर दमनकारी विधर्मियों के आगे झुकने से बचाया और धर्म पर दृढ़ रहना सिखाया, इन जैसे धर्मरक्षक महापुरुषों के कारण ही भारत में विश्व के सर्वाधिक प्राचीन सनातन धर्म की पताका आज भी लहरा रही है।