वासुदेव बलवंत फड़के – आद्य क्रांतिकारी
17 फरवरी : पुण्यतिथि : “राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध पहली सेना बनाने वाले, सशस्त्र क्रान्ति के पितामह ‘आद्य क्रांतिकारी’ वासुदेव बलवंत फड़के’*
_”भारत को स्वतन्त्र करवाने के लिए बलिदान देने वालों में तेजस्वी क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के एक ऐसा नाम है, जिन्होंने आरामदायक जीवन त्याग कर अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किए जा रहे अत्याचार के विरुद्ध आवाज बुलंद की और अंग्रेजी सरकार को हिला कर रख दिया। आइए जानते हैं इस क्रांतिवीर के दिव्य जीवन को—”_
उनका कहना था, ‘‘भूख से जो लोग मर रहे हैं, उनको मैं कैसे बचा सकता हूं, इस विषय पर अनेक वर्ष मैं सोचता रहा। जिस भूमि का मैं पुत्र हूं, उसी की ये सब संतान हैं। ये लोग अन्नाभाव में भूखे मरते रहें और हम पेट भरते रहें, यह मुझ से देखा नहीं गया। अत: ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध मैंने सशस्त्र विद्रोह की घोषणा की।’’
वासुदेव बलवंत फड़के ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह का संगठन और सशस्त्र सेना का निर्माण करने वाले भारत के सबसे पहले क्रांतिकारी थे। उन्होंने अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़ कर और युवा पत्नी के साथ-साथ नन्ही बालिका का प्रेम भुलाकर ब्रिटिश शासन का अंत करने का बीड़ा उठाया।
4 नवंबर, 1845 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के शिरढोणे में जन्मे वासुदेव के पिता बलवंत तथा मां सरस्वती बाई एक संपन्न और धनी घराने से थे। उनका बचपन कल्याण में बीता। पढ़ाई समाप्त कर उन्होंने बतौर क्लर्क नौकरी की, जहां उन्हें उस समय 60 रुपए प्रतिमाह वेतन मिलता था। शीघ्र ही विवाह हो गया और वह बच्ची के पिता बन गए। पहली पत्नी के जल्द निधन के कारण बच्ची की देखभाल करे लिए उन्हें दूसरा विवाह करना पड़ा।
पूना में उन दिनों अखाड़े लगते थे। वासुदेव फड़के प्रात:-सायं अखाड़ों में जाते। कुश्ती के दांव-पेंच सीखते। वह प्रतिदिन 300 दंड-बैठकें निकालते। अखाड़ेबाजी में फड़के के साथी ज्योतिबा फुले थे, जो महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध समाज-सुधारक नेता हुए। उनके अलावा वह गोविंद रानाडे से भी काफी प्रभावित थे और उन्होंने नौकरी छोड़ कर युवकों को संगठित किया।
उनकी व्यायामशाला जंगल में बने एक मंदिर के आंगन में लगती थी। वहां शस्त्राभ्यास भी कराया जाता था। यहां सीखने आने वालों में तिलक भी थे। उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सशस्त्र मार्ग का अनुसरण किया।
अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए लोगों को जागृत करने का कार्य वासुदेव बलवंत फड़के ने किया। महाराष्ट्र की कोली, भील तथा धांगड जातियों को एकत्र कर उन्होंने ‘रामोशी’ नामक क्रान्तिकारी संगठन खड़ा किया। इस मुक्ति संग्राम के लिए धन एकत्र करने के लिए उन्होंने अंग्रेजों तथा साहूकारों को लूटा। उन्हें तब विशेष प्रसिद्धि मिली, जब उन्होंने पुणे नगर को कुछ दिनों के लिए अपने नियंत्रण में ले लिया था।
महाराष्ट्र के 7 जिलों में उनकी सेना का जबरदस्त प्रभाव फैल चुका था। 13 मई, 1879 को एक सरकारी भवन में उन्हें लेकर अंग्रेजों की बैठक चल रही थी। वासुदेव फड़के ने साथियों सहित वहां पुहंच कर अंग्रेज अफसरों को मारा तथा भवन को आग लगा दी। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के सामने अंग्रेजी सरकार थर-थर कांपने लगी और उनकी गिफ्तारी के लिए कई योजनाएं बनीं, लेकिन चतुराई और साहस से वह हर बार उन पर पानी फेर देते।
अंग्रेजों ने उन्हें जिंदा या मुर्दा पकडऩे पर 50 हजार रुपए का ईनाम घोषित किया किन्तु दूसरे ही दिन मुम्बई में वासुदेव के हस्ताक्षर से पर्चे लगा दिए गए कि जो अंग्रेज अफसर ‘रिचर्ड’ का सिर काटकर लाएगा, उसे 75 हजार रुपए का ईनाम दिया जाएगा। अंग्रेज इससे और भी बौखला गए। पुलिस इनकी तलाश में जगह-जगह छापे मारने लगी। देशद्रोही द्वारा खबर करने पर वासुदेव फड़के 20 जुलाई, 1879 को गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर मुकद्दमा चलाया गया।
वासुदेव की लोकप्रियता से अंग्रेज इतना डरते थे कि उन्हें बंदी बनाए जाने के बाद वहां रखने से विद्रोह न भड़क जाए, इसलिए उन्हें आजन्म कालापानी की सजा सुना दी गई। जनवरी 1880 में वासुदेव बलवंत फड़के अदन पहुंचे। वह अदन जेल से भागने में सफल हुए, पर अदन के रास्ते जानते नहीं थे। उन्हें फिर पकड़ लिया गया। जेल में उन्हें क्षय रोग हो गया और उन्होंने 17 फरवरी, 1883 को अदन की ब्रिटिश जेल में प्राण त्याग दिए। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया।
*मां भारती के इस वीरपुत्र को उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धा से नमन। आइए गांधी नेहरू की अतिप्रशंसा में गुमनाम रह जाते इन वीर क्रांतिकारियों के जीवन को हम सभी भारतीयों तक पहुंचाने का संकल्प लें।