पुण्यतिथि – आचार्य स्वामी चिन्मयानन्द सरस्वती जी

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इतिहास में आज का दिन  

*३ अगस्त : पुण्यतिथि – गीता ज्ञान-यज्ञ द्वारा धर्म से विलग होते समाज को धर्म मार्ग पर लाने वाले, विश्व हिंदू परिषद की स्थापना के प्रेरक, श्रीमद्भगवद्गीता के महान आचार्य स्वामी चिन्मयानन्द सरस्वती जी*

_”स्वामी चिन्मयानन्द हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता थे। उन्होंने सारे भारत में भ्रमण करते हुए देखा कि देश में धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हैं। उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए उन्होंने गीता ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ किया और १९५३ ई में धर्मप्रचार को समर्पित चिन्मय मिशन की स्थापना की। स्वामी जी के प्रवचन बड़े ही तर्कसंगत और प्रेरणादायी होते थे। उनको सुनने के लिए हजारों लोग आने लगे। उन्होंने सैकड़ों संन्यासी और ब्रह्मचारी प्रशिक्षित किये। हजारों स्वाध्याय मंडल स्थापित किये। बहुत से सामाजिक सेवा के कार्य प्रारम्भ किये, जैसे विद्यालय, अस्पताल आदि। स्वामी जी ने उपनिषद्, गीता और आदि शंकराचार्य के ३५ से अधिक ग्रंथों पर व्याख्यायें लिखीं। गीता पर लिखा उनका भाष्य सर्वोत्तम माना जाता है”_

*आरम्भिक जीवन:*

स्वामी चिन्मयानन्द जी का जन्म ८ मई १९१६ को दक्षिण भारत के केरल प्रान्त में एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम बालकृष्ण था। उनके पिता न्याय विभाग में एक न्यायाधीश थे। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद उन्होंने बी. ए पास किया व लखनऊ विश्वविद्यालय से एम. ए किया।

इसके बाद बालकृष्ण ने पत्रकारिता का कार्य प्रारम्भ किया। उनके लेखों में समाज के गरीब और उपेक्षित व्यक्तियों का चित्रण था। वे अनेक प्रसिद्ध समाचार पत्रों में कार्य कर प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे।

*साधुओं की पोल खोलने आया संशयी पत्रकार स्वयं निशंक  संन्यासी बन बैठा:*

एक पत्रकार के रूप में काम करते हुए, उन्होंने साधुओं का एक एक्सपोज़ लिखने के उद्देश्य से ऋषिकेश में शिवानंद के आश्रम की यात्रा की। वो स्वयं बताते थे कि “मैं ज्ञान हासिल करने के लिए नहीं, बल्कि यह पता लगाने के लिए गया था कि कैसे स्वामी जनता के बीच झांसा दे रहे थे।” लेकिन जब १९४७ की गर्मियों में, वे गंगा के किनारे ऋषिकेश पहुंचे और स्वामी शिवानंद के आश्रम डिवाइन लाइफ सोसाइटी के लिए एक मील की दूरी तय की। वहाँ, गंगास्नान के बाद ईश्वर का ध्यान, स्वाध्याय, गुरु सेवा आदि आश्रम के नियमों का पालन करते-करते वे एक संशयवादी पत्रकार से एक उत्साही साधक के रूप में बदल गए, अंत में एक त्यागी साधु बन गये। 

*गुरु से संन्यास दीक्षा व शास्त्रों के स्वाध्याय का तप:*

२५ फरवरी १९४९, महाशिवरात्रि के पवित्र दिन , बालन को शिवानंद द्वारा संन्यास में दीक्षित किया गया, जिन्होंने उन्हें स्वामी चिन्मयानंद(शुद्धता का आनंद) नाम दिया, वे अपने गुरु से मार्ग-दर्शन पुस्तकालय की एक – एक पुस्तक लेकर अध्ययन करने लगे। दिन भर पढ़ने के लिए पर्याप्त समय रहता। उन दिनों आश्रम में बिजली नहीं थी। इसलिए रात के समय पढ़ने की सुविधा नही थी। स्वामी जी उस समय दिन भर पढ़े हुए विषयों का चिन्तन करते थे। कुछ दिनों बाद उनका अध्ययन गहन हो गया और वे बड़े गम्भीर चिन्तन में व्यस्त रहने लगे।

उनकी यह स्थिति देखकर स्वामी शिवानन्द जी ने उन्हें शास्त्रों  के विद्वान आचार्य स्वामी तपोवन जी के पास उपनिषदों का अध्ययन करने के लिए भेज दिया। उन दिनों स्वामी तपोवन महाराज उत्तरकाशी में वास करते थे। अपने जीवन के अगले 8 वर्षों को उनके संरक्षण में वेदांत के गहन अध्ययन के लिए समर्पित कर दिया। उनके शिष्य के रूप में, १९४९ से, चिन्मयानंद ने एक अत्यंत कठोर जीवन शैली का पालन किया और शास्त्रों का कठोर अध्ययन किया। स्वामी जी को अपनी गुरु के शिक्षा अनुसार संयमी, विरक्त और शान्त रहने का अभ्यास करना होता था। इसके परिणामस्वरूप, स्वामी जी का स्वभाव बिल्कुल बदल गया। जीवन और जगत् के प्रति उनकी धारणा बदल गई।

*सुप्रसिद्ध गीता ज्ञानयज्ञ आरंभ कर धर्मप्रचार व लोकसेवा:*

अध्ययन समाप्त करने के बाद स्वामी जी के मन मे लोक सेवा करने का विचार प्रबल होने लगा। तपोवन जी से स्वीकृति पाकर वे दक्षिण भारत की ओर चले और पूना पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपना प्रथम ज्ञान यज्ञ किया। यह एक प्रकार का नया प्रयोग था। प्रारम्भ में श्रोताओं की संख्या चार या छह ही था। वह धीरे धीरे बढ़ने लगी, लगभग एक महीने के ज्ञान यज्ञ के बाद वे मद्रास चले गये और वहाँ दूसरा ज्ञान यज्ञ प्रारम्भ किया। पहले ये गीता ज्ञान-यज्ञ भारत के बड़े नगरों में हुए, फिर छोटे नगरों में। कुछ समय बाद स्वामी जी विदेश भी जाने लगे.अब इन यज्ञों की इतनी अधिक माँग हुई कि उसे एक व्यक्ति द्वारा पूरा करना असम्भव हो गया। इसलिए स्वामी जी ने बम्बई सान्दीपनी की स्थापना की और ब्रह्मचारियों को प्रशिक्षित करना प्रारम्भ किया। दो तीन वर्ष पढ़ने के बाद ब्रह्मचारी छोटे यज्ञ करने लगे, स्वाध्याय मंडल चलाने लगे

और अनेक  प्रकार के सेवा कार्य करने लगे। इस समय देश में १७५ केन्द्र और विदेशों में लगभग ४० केन्द्र कार्य कर रहे है। इन केन्द्रों पर लगभग १५० स्वामी एवं ब्रह्मचारी कार्य में लगे है। यह संख्या हर वर्ष बढ़ रही है।

धर्म प्रचार व निस्वार्थ सेवाकार्य द्वारा, अधर्म की ओर जाते हिंदुओं को धर्म से जोड़ने हेतु ‘चिन्मय मिशन’ की स्थापना:

१९५३ में मद्रास में दूसरे ज्ञान यज्ञ के अंत में , कुछ मुट्ठी भर लोगों ने वेदांत के अध्ययन और चर्चा के लिए एक मंच बनाने की इच्छा व्यक्त की। चिन्मयानंद सैद्धांतिक रूप से सहमत हो गए, ८ अगस्त १९५३ को चिन्मय मिशन का गठन किया गया था। लंबे समय से पहले, पूरे देश में सैकड़ों अध्ययन समूह स्थापित किए गए थे ताकि लोग छोटे-छोटे समूहों में एक व्यवस्थित तरीके से धर्म और दर्शन का अध्ययन कर सकें। महिलाओं के लिए नियमित आध्यात्मिक अध्ययन और सामाजिक कार्य करने के लिए देवी समूहों का आयोजन किया गया।

*विश्व हिंदू परिषद की स्थापना का विचार करने वाले दूरदर्शी:

१९६३ में, स्वामी चिन्मयानंद ने एक विश्व हिंदू परिषद बुलाने के विचार को प्रसारित करते हुए एक लेख लिखा, जिसमें “हिंदू संस्कृति के अस्तित्व और विकास” से संबंधित कठिनाइयों और आवश्यकताओं पर चर्चा करने के लिए  विश्वभर के हिंदू प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया था।  आरएसएस के प्रचारक एस.एस. आप्टे और स्वामी चिन्मयानंद ने संयुक्त रूप से अगस्त १९६४ में संदीपनी आश्रम में इस तरह के एक सम्मेलन का आयोजन किया, जिसके परिणामस्वरूप विश्व हिंदू परिषद की स्थापना हुई । स्वामी चिन्मयानंद को अध्यक्ष और आप्टे को नए संगठन के महासचिव के रूप में चुना गया था। विश्व हिंदू परिषद को स्वामी जी ने *”हम हिंदुओं को हिंदू धर्म में परिवर्तित करेंगे, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा”* का मंत्र दिया।

*विवेकानंद शिला स्मारक निर्माण में योगदान व विधर्मियों से लड़ता संन्यासी:*

स्वामी जी की प्रेरणा पर चिन्मय मिशन ने १०,०००, विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के लिए दिए, इसके अतिरिक्त जब, अगस्त १९६४ में, पोप ने घोषणा की कि नवंबर में बॉम्बे में अंतर्राष्ट्रीय यूचरिस्टिक सम्मेलन आयोजित किया जाएगा, और कहा कि २५० हिंदुओं को ईसाई धर्म में परिवर्तित किया जाएगा; तो धर्मवीर स्वामी चिन्मयानंद ने घोषणा की कि ऐसा हुआ तो वह ५०० ईसाइयों को हिंदू धर्म में परिवर्तित करेंगे।  

*अयोध्या मथुरा, काशी में बनी मस्जिदें हटवाकर मंदिर स्थापना के प्रबल समर्थक* 

जनवरी १९९३ में, एक साक्षात्कार दिया जिसमें उन्होंने बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर चर्चा की। इसकी तुलना बर्लिन की दीवार के गिरने से करते हुए , उन्होंने जोर देकर कहा कि “उस ढांचे को गिराना कुछ भी गलत नहीं है” क्योंकि यह वास्तव में एक मस्जिद के रूप में इस्तेमाल नहीं किया गया था। पहले हमें यह राम मंदिर मिल जाए,” उन्होंने कहा, जिसके बाद “दो और ढांचे बचते हैं जो हमारे कृष्ण के जन्म स्थान और काशी विश्वनाथ पर बने हैं।” 

*अनेक रचनाओं के लेखक व श्रीमदभगवद्गीता को अंग्रेजी भाषियों में लोकप्रिय बनाने वाले:

चिन्मयानंद ने अपने जीवनकाल में ९५ प्रकाशनों की रचना की, जिसमें शास्त्रीय ग्रंथों पर चालीस टिप्पणियाँ, ८ संकलन, १३ सह-लेखक कार्य और ३४ मूल कार्य शामिल हैं। वर्षों से, भारत में लक्जरी होटलों ने अपने सभी अतिथि कमरों में भगवद-गीता पर उनकी टिप्पणी की एक प्रति रखना शुरू कर दिया।

*विदेशों में धर्मप्रचार, विश्व धर्म सम्मेलन व संयुक्त राष्ट्र में सनातन का प्रतिनिधित्व:*

६ मार्च १९६५ को, चिन्मयानंद ने अपने वैश्विक शिक्षण दौरे पर १८ देशों के ३९ नगरों में धर्म प्रचार किया। जिसे वे अंतिम क्षणों तक लगातार २८ वर्षों तक करते रहे।

२ दिसंबर १९९२ को, चिन्मयानंद ने संयुक्त राष्ट्र को संबोधित किया और वार्ता का शीर्षक “संकट में ग्रह” था। अमेरिकी पत्रिका, हिंदू धर्म टुडे ने उन्हें १९९२ में अपने हिंदू पुनर्जागरण पुरस्कार और “हिंदू ऑफ द ईयर” की उपाधि से सम्मानित किया। १९९३ में, शिकागो में विश्व धर्म संसद के शताब्दी सम्मेलन के लिए उन्हें “हिंदू धर्म के अध्यक्ष” के रूप में चुना गया था , जहां स्वामी विवेकानंद ने एक सौ साल पहले अपना भाषण दिया था।

*देहान्त:

स्वामी चिन्मयानन्द जी ने अपना भौतिक शरीर ३ अगस्त १९९३ ई. को अमेरिका के सेन डियागो नगर में त्याग दिया। और सनातन का यह प्रचारक परमात्मा में विलीन हो गया। 

*हम ऐसे कर्मयोगी, धर्मरक्षक, धर्मप्रचारक, तपस्वी संन्यासी के निर्वाण दिवस पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

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