जन्म-जयन्ती – रानी अवन्तीबाई

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16 अगस्त 

जन्म-जयन्ती — 

छत्तीसगढ़ का गौरव, 1857 की क्रान्ति में रेवाँचल मुक्ति आन्दोलन की सूत्रधार रानी अवन्तीबाई लोधी

 _भारत की पवित्र भूमि ऐसे अगण्य-अज्ञात वीर-वीरांगनाओं से भरी पड़ी है, जिन्होंने 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से लेकर देश के स्वतन्त्र होने तक भिन्न-भिन्न रूप में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, किन्तु वामी इतिहासकारों ने सदैव उन्हें इतिहास से वञ्चित रखा।_ _ऐसी ही एक महान् वीरांगना हैं रानी अवन्तीबाई।_ 

आरम्भिक जीवन —रानी अवन्तीबाई का जन्म 16 अगस्त, 1831 में मध्यप्रदेश के ग्राम मनकेहणी, जिला डिंडोरी में हुआ था। इनके पिता राव जुझार सिंह मनकेहणी के जमींदार थे। बाल्यावस्था में ही वीरांगना अवन्तीबाई का विवाह रामगढ़ राज्य के शासक लक्ष्मण सिंह के पुत्र विक्रमाजीत सिंह से हुआ। लक्ष्मण सिंह के निधन के पश्चात् विक्रमाजीत सिंह ने राजगद्दी सम्भाली। विक्रमाजीत सिंह बचपन से ही वीतरागी प्रवृत्ति के थे, अत: राज्य सञ्चालन का कार्य उनकी पत्नी रानी अवन्तीबाई ही करती रहीं। उनके दो पुत्र हुए—अमान सिंह और शेर सिंह। 

पालक न्यायालय (1853)—

 रामगढ़ के राजा विक्रमाजीत सिंह को विक्षिप्त तथा अमान सिंह व शेर सिंह को नाबालिग घोषित कर रामगढ़ राज्य को हड़पने की दृष्टि से अंग्रेज शासकों ने पालक न्यायालय (कोर्ट ऑफ वार्ड्स) की कार्यवाही की एवं राज्य के प्रशासन के लिए सरबराहकार नियुक्त कर शेख मोहम्मद तथा मोहम्मद अब्दुल्ला को रामगढ़ भेजा, जिससे रामगढ़ रियासत “कोर्ट ऑफ वार्ड्स” के कब्जे में चली गयी। अंग्रेज शासकों की इस हड़प नीति का परिणाम भी रानी जानती थी, फिर भी दोनों सरबराहकारों को उन्होंने रामगढ़ से बाहर निकाल दिया। 1855 ई. में राजा विक्रमाजीत सिंह की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। अब नाबालिग पुत्रों की संरक्षिका के रूप में राज्य शक्ति रानी के हाथों आ गयी। रानी ने राज्य के कृषकों को अंग्रेजों के निर्देशों को न मानने का आदेश दिया, इस सुधार कार्य से रानी की लोकप्रियता बढ़ी। 

क्षेत्रीय सम्मेलन (मई, 1857)—

 1857 ई॰ में सागर एवं नर्मदा परिक्षेत्र के निर्माण के साथ अंंग्रेजों की शक्ति में वृद्धि हुई। अब अंग्रेजों को रोक पाना किसी एक राजा या तालुकेदार के वश का नहीं रहा। रानी ने राज्य के आस-पास के राजाओं, परगनादारों, जमींदारों और बड़े मालगुजारों का विशाल सम्मेलन रामगढ़ में आयोजित किया, जिसकी अध्यक्षता गढ़ पुरवा के राजा शंकरशाह ने की। इस गुप्त सम्मेलन के विषय में जबलपुर के कमिश्नर मेजर इस्काइन और मण्डला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन को भी पता नहीं था। गुप्त सम्मेलन में लिए गए निर्णय के अनुसार प्रचार का दायित्व रानी पर था। एक पत्र और दो काली चूड़ियों की एक पुड़िया बनाकर प्रसाद के रूप में वितरित करना। पत्र में लिखा गया- “अंग्रेजों से संघर्ष के लिए तैयार रहो या चूड़ियाँ पहनकर घर में बैठो।” पत्र सौहार्द और एकजुटता का प्रतीक था, तो चूड़ियाँ पुरुषार्थ जागृत करने का सशक्त माध्यम बनी। पुड़िया लेने का अर्थ था अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति में अपना समर्थन देना। 

क्रान्ति का प्रारम्भ— देश के कुछ क्षेत्रों में क्रान्ति का शुभारम्भ हो चुका था। 1857 में 52वीं देशी पैदल सेना जबलपुर सैनिक केन्द्र की सबसे बड़ी शक्ति थी। 18 जून को इस सेना के एक सिपाही ने अंग्रेजी सेना के एक अधिकारी पर घातक वार किया। जुलाई 1857 में मण्डला के परगनादार उमराव सिंह ठाकुर ने कर देने से इनकार कर दिया और इस बात का प्रचार करने लगा कि अंग्रेजों का राज्य समाप्त हो गया। अंग्रेज, विद्रोहियों को डाकू और लुटेरे कहते थे। मण्डला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन ने मेजर इस्काइन से सेना की माँग की। पूरे महाकौशल क्षेत्र में विद्रोहियों की हलचलें बढ़ गईं। गुप्त सभाएँ और प्रसाद की पुड़ियों का वितरण चलता रहा। इस बीच राजा शंकरशाह और राजकुमार रघुनाथ शाह को दिए गए मृत्युदण्ड से अंग्रेजों की नृशंसता की व्यापक प्रतिक्रिया हुई। वे इस क्षेत्र के राज्यवंश के प्रतीक थे। इसकी प्रथम प्रतिक्रिया रामगढ़ में हुई। रामगढ़ के सेनापति ने भुआ बिछिया थाना में चढ़ाई कर दी। जिससे थाने के सिपाही थाना छोड़कर भाग गए और विद्रोहियों ने थाने पर अधिकार कर लिया। रानी के सिपाहियों ने घुघरी पर चढ़ाई कर उस पर अपना अधिकार कर लिया और वहाँ के तालुकेदार धन सिंह की सुरक्षा के लिए उमराव सिंह को उत्तरदायित्व सौंपा। रामगढ़ के कुछ सिपाही एवं मुकास के जमींदारों ने भी नारायणगंज पहुँचकर जबलपुर-मण्डला मार्ग को बन्द कर दिया। इस प्रकार पूरा जिला और रामगढ़ राज्य में विद्रोह भड़क चुका था और वाडिंग्टन विद्रोहियों को कुचलने में असमर्थ हो गया था। वह विद्रोहियों की गतिविधियों से भयभीत हो चुका था। इस प्रकार भारत के अनेक भागों में अपने पैर जमाए अंग्रेजों को उखाड़ने के लिए रानी अवन्तीबाई ने क्रान्ति का आरम्भ किया। 

खैरी युद्ध (23 नवम्बर 1857)—

मण्डला नगर को छोड़कर पूरा जिला स्वतन्त्र हो चुका था। अवन्तीबाई ने मण्डला विजय के लिए सिपाहियों सहित प्रस्थान किया। रानी की सूचना प्राप्त होने पर शहपुरा और मुकास के जमींदार भी मण्डला की और रवाना हुए। मण्डला पहुँचने के पूर्व खड़देवरा के सिपाही भी रानी के सिपाहियों से मिल गए। खैरी के पास अंग्रेज सिपाहियों के साथ अवन्तीबाई का युद्ध हुआ। वाडिंग्टन पूरी शक्ति लगाने के बाद भी कुछ न कर सका और मण्डला छोड़ सिवनी की ओर भाग गया। इस प्रकार पूरा मण्डला जिला एवं रामगढ़ राज्य स्वतन्त्र हो गया। इस विजय के उपरान्त आन्दोलनकारियों की शक्ति में कमी आ गई, किन्तु उल्लास में कमी नहीं आयी। रानी रामगढ़ वापस हो गईं। इस प्रकार भारत में प्रथम महिला क्रान्तिकारी रामगढ़ की रानी अवन्तीबाई ने अंग्रेजों के विरुद्ध ऐतिहासिक निर्णायक युद्ध किया, जो भारत की स्वतन्त्रता में बहुत बड़ा योगदान है। इससे रामगढ़ की रानी अवन्तीबाई का नाम पूरे भारतीय इतिहास में अमर हो गया। 

भारत के वामी

जिहादी इतिहासकारों की लेखनी ने देश के बहुत से त्यागी- बलिदानियों व देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले वीर-वीरांगनाओं को भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास की पुस्तकों में उचित सम्मानपूर्ण स्थान नहीं दिया है। परन्तु आज भी इन वीर-वीरांगनाओं की शौर्यपूर्ण गाथाएँ भारत की पवित्र भूमि पर गुञ्जायमान हैं और उनका शौर्यपूर्ण जीवन प्रत्येक भारतीय के जीवन को मार्ग-प्रदर्शित करता है।

ऐसी ही महान् वीरांगना व 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में मध्यभारत की प्रमुख सूत्रधार अवन्तिबाई लोधी की जन्म जयन्ती पर शत-शत नमन 

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