क्रान्तिवीर मदन लाल ढींगरा

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आज का दिन इतिहास में 

इतिहास में आज का दिन 

17 अगस्त : बलिदान-दिवस – 

ब्रिटिश अधिकारी कर्जन वायली का वध कर स्वाधीनता यज्ञ में आहुति देने वाले अप्रतिम क्रान्तिवीर मदन लाल ढींगरा

  _”साँस बनी है आँधी सी,_ _तूफान उठा है सीने में।_ _जब तक गुलाम है देश मेरा,_ _मौज कहाँ है जीने में।।”_ _ये शब्द हैं विदेश में जा कर्जन वायली का वध कर खुदीराम बोस की फाँसी का प्रतिशोध लेने वाले मदनलाल ढींगरा जी के, वो महावीर जिनको पुस्तको में नहीं मिला यथोचित सम्मान; क्योंकि पुस्तकें लिखने वाले थे वामपंथी, नेहरू-गांधीवादी। वीर मदनलाल धींगरा जी… ये नाम भारतमाता के उस वीर बेटे का है, जो शौर्य व पराक्रम का दूसरा नाम था तथा जिसने भारतमाता को ब्रिटिश गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए अपना बलिदान दे दिया था। मदनलाल ढींगरा चाहते, तो वह भी स्वाधीनता आन्दोलन में चरखा चला सकते थे, किन्तु वह जानते थे कि यदि चरखे से ही आजादी मिलती, तो इतने समय तक ब्रिटिश भारत को गुलाम बनाकर रख ही नहीं पाते, 1857 की क्रान्ति होती ही नहीं। अतः उन्होंने चरखा चलाने के बजाय उस रास्ते को चुना, जिस रास्ते पर मंगल पाण्डेय, नाना साहब, तात्या टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई चलीं थीं। आइये जानते हैं ऐसे वीर के विषय में_ 

आरम्भिक जीवन—

   मदनलाल ढींगरा का जन्म 18 सितम्बर सन् 1883 को पंजाब प्रान्त के एक सम्पन्न हिन्दू परिवार में हुआ था। उनके पिता डॉ॰ दित्तामल ढींगरा जी सिविल सर्जन थे व अंग्रेजी रंग में पूरी तरह रंगे हुए थे, किन्तु माताजी अत्यन्त धार्मिक एवं भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण महिला थीं।   

कॉलेज में राष्ट्रवाद की भावना—

    मदनलाल आठ भाई-बहन थे। सभी भाइयों की शिक्षा देश के बाहर हुई थी। देश से बाहर शिक्षा प्राप्त करने से पूर्व मदनलाल ने अमृतसर के एमबी इण्टरमीडिएट कॉलेज और उसके बाद लाहौर के गर्वनमेंट कॉलेज यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की थी, जहाँ वे राष्ट्रवादी आन्दोलन से प्रभावित हुए, जो उस समय होम रूल की माँग कर रहा था। 

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अंग्रेजों के विरोध का आरम्भ—

    ढींगरा ने पाया कि देश में औपनिवेशिक सरकार की औद्योगिक और वित्तीय नीतियों को इस तरह से तैयार किया गया है, जिससे स्थानीय उद्योगों का दमन हो सके और ब्रिटिश आयात को लाभ मिल सके। उन्होंने पाया कि भारत के विकास की कमी का सबसे बड़ा कारण भी यही है। साल 1904 में ढींगरा ने एमए की पढ़ाई के समय प्रिंसिपल द्वारा दिये आदेश (छात्रों को ब्रिटेन से आयातित कपड़े का ब्लेजर पहनने का आदेश) के विरुद्ध छात्रों का नेतृत्व किया। इसके लिए उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया था।  

गुलामी की मानसिकता वाले पिता से क्रांतिवीर का अलगाव—

     ढींगरा के पिता एक सरकारी पद पर थे व उनका परिवार अंग्रेजों का विश्वासपात्र था। जिस कारण उनके पिता इस प्रकार के विरोध के समर्थक नहीं थे। उन्होंने मदनलाल से क्षमा माँगने को कहा, जिससे उन्हें कॉलेज में पुनः प्रवेश मिल सके, परन्तु मदनलाल ने ऐसा करने से स्पष्ट मना कर दिया। यहाँ तक कि वे इस विषय में पिता से चर्चा करने घर तक नहीं लौटे और अपने अनुसार ही जीवन जीने के लिए शिमला के पास कालका में क्लर्क की नौकरी करने लगे। 

जीवन संघर्ष व इंग्लैण्ड गमन—

   उन्हें अपने स्वाभिमान व देश-प्रेम की रक्षा हेतु क्लर्क की नौकरी के उपरान्त तांगा-चालक के रूप में और अन्त में एक कारखाने में श्रमिक के रूप में काम करना पड़ा। कारखाने में श्रमिकों की दशा सुधारने हेतु उन्होंने यूनियन (संघ) बनाने का प्रयास किया, किन्तु वहाँ से भी उन्हें निकाल दिया गया। कुछ दिन उन्होंने मुम्बई में  छोटे-मोटे काम किये। तत्पश्चात अपने बड़े भाई डॉ॰ बिहारी लाल के परामर्श पर सन् 1906 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैण्ड चले गये, जहाँ उन्होंने यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन में यान्त्रिकी-अभियान्त्रिकी में प्रवेश ले लिया। विदेश में रहकर अध्ययन करने के लिये उन्हें उनके बड़े भाई ने तो सहायता दी ही साथ-ही इंग्लैण्ड में रह रहे कुछ राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं से भी आर्थिक सहायता मिली। 

 लन्दन में क्रान्तिकारियों का साथ वीर सावरकर से निर्णायक भेंट

      लन्दन में ही ढींगरा भारत के प्रख्यात राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर एवं श्यामजी कृष्ण वर्मा के संपर्क में आए। वे लोग ढींगरा की ऐसी प्रचण्ड देशभक्ति से बहुत प्रभावित हुए। ऐसा विश्वास किया जाता है कि सावरकर ने ही मदनलाल को “अभिनव भारत” नामक क्रान्तिकारी संस्था का सदस्य बनाया और हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया। 

अपने क्रान्तिकारी बन्धु की फाँसी के प्रतिशोध का निश्चय—

मदनलाल ढींगरा ‘ इण्डिया हाउस ‘ में रहते थे, जो उन दिनों भारतीय विद्यार्थियों के राजनैतिक क्रियाकलापों का केन्द्र हुआ करता था। ये लोग उस समय खुदीराम बोस और उनके कई क्रान्तिकारियों को अंग्रेजों द्वारा फाँसी लगाये जाने से बहुत क्रोधित थे। जिसका प्रतिशोध लेने का वह चिन्तन करते रहते थे। शीघ्र ही वह घड़ी आ गई जब हमारे इस क्रान्तिवीर को अपने आदर्श खुदीराम बोस जी की फाँसी का प्रतिशोध लेने का अवसर मिल गया। 

कर्जन वायली का वध कर युवा क्रान्तिकारी खुदीराम बोस की फाँसी का प्रतिशोध—

 1 जुलाई सन् 1909 की शाम को इण्डियन नेशनल ऐसोसिएशन के वार्षिकोत्सव में भाग लेने के लिये भारी संख्या में भारतीय और अंग्रेज एकत्र हुए। जैसे ही भारत सचिव का राजनीतिक सलाहकार सर विलियम हट कर्जन वायली अपनी पत्नी के साथ हाॅल में आया, ढींगरा ने उनके चेहरे पर पाँच गोलियाँ दागी; इसमें से चार सही निशाने पर लगीं। उसके बाद ढींगरा ने अपनी पिस्तौल से स्वयं को भी गोली मारनी चाही; किन्तु उन्हें पकड़ लिया गया। 

हत्या अभियोग एवं मृत्युदण्ड—

 ढींगरा पर हत्या का अभियोग चलाया गया। उन्होंने स्वयं की पैरवी की और अदालत की वैधता को ही मानने से इनकार कर दिया। अदालत ने उनको मृत्युदण्ड दिया। मदन लाल ढींगरा ने अदालत में खुले शब्दों में कहा कि 

“मुझे गर्व है कि मैं अपना जीवन समर्पित कर रहा हूँ।”_

अदालत में दिए गए उनके इस बयान ने न केवल भारत के; अपितु आयरिश स्वतन्त्रता आन्दोलन के लोगों को भी प्रेरित किया। 17 अगस्त, 1909 को लन्दन के पेंटविले जेल में उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया और मदनलाल ढींगरा अमर हो गए। *राष्ट्रभक्तों को प्रेरणा देता क्रांतिवीर का स्मारक—

 देश-भक्ति, देश-प्रेम व देश की स्वतन्त्रता हेतु अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले ऐसे अमर स्वातन्त्र्य वीर मदनलाल ढींगरा जी को श्रद्धाञ्जलि देने हेतु एवं सदैव इनका स्मरण करने हेतु अजमेर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने इनका स्मारक बनाया गया है। 

माना कि क्रूर अंग्रेजों ने उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी थी, किन्तु माँ भारती के इस वीरपुत्र की यशलीला तो आज इतने वर्षों बाद भी उतने ही शिखर पर है, जितनी उनके बलिदान के समय थी। देश के बलिदानी कभी भी मरते नहीं है, उनकी लौकिक मृत्यु में ही उनका यश रूपी जीवन छिपा होता है।

 आइए गांधी-नेहरू के गुणगान में छिपाए जाते इस बलिदानी क्रान्तिकारी के जीवन को स्मरण करें व करवाएँ एवं उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि, अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें

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