शिवराम हरि राजगुरु
इतिहास में आज का दिन
आज का दिन इतिहास में
24 अगस्त :
जन्म-दिवस—
बलिदान को उत्सुक राजगुरु
_सामान्यतः लोग धन, पद या प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए एक-दूसरे से होड़ करते हैं। परन्तु जो सदा इस होड़ में रहते थे कि किसी भी जोखिम कार्य का अवसर भगतसिंह से पहले उन्हें मिलना चाहिए, वह थे अमर बलिदानी राजगुरु।_
आरम्भिक जीवन —
श्री हरि नारायण और श्रीमती पार्वतीबाई के पुत्र शिवराम हरि राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे के पास खेड़ा (वर्तमान राजगुरु नगर) में हुआ था। उनके एक पूर्वज पण्डित कचेश्वर को छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रपौत्र साहूजी ने राजगुरु का पद दिया था। तब से इस परिवार में यह उपनाम लगने लगा। छह वर्ष की अवस्था में राजगुरु के पिताजी का देहान्त हो गया। पढ़ाई के स्थान पर खेल-कूद में अधिक रुचि लेने से उनके भाई अप्रसन्न हो गये। इस पर राजगुरु ने घर छोड़ दिया और कई दिन इधर-उधर घूमते हुए काशी आकर संस्कृत पढ़ने लगे। भोजन और आवास के बदले उन्हें अपने अध्यापक के घरेलू काम करने पड़ते थे। एक दिन उस अध्यापक से भी झगड़ा हो गया और पढ़ाई छोड़कर वे एक प्राथमिक शाला में व्यायाम सिखाने लगे।
क्रान्तिकारी जीवन का प्रारम्भ —
बचपन से ही राजगुरु के अन्दर स्वाधीनता संग्राम में सम्मिलित होने की ललक थी। वाराणसी में विद्याध्ययन करते हुए राजगुरु का सम्पर्क अनेक क्रान्तिकारियों से हुआ। यहाँ उनका परिचय स्वदेश साप्ताहिक, गोरखपुर के सह-सम्पादक मुनीश अवस्थी से हुआ। कुछ ही समय में वे क्रान्तिकारी दल के विश्वस्त सदस्य बन गये। वे चन्द्रशेखर आजाद से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से तत्काल जुड़ गए, उस वक्त उनकी आयु मात्र 16 वर्ष थी। उनका और उनके साथियों का मुख्य लक्ष्य था ब्रिटिश अधिकारियों के मन में भय उत्पन्न करना। साथ ही वे घूम-घूम कर लोगों को स्वाधीनता के लिये जागृत करते थे। *छद्म-नाम —* आजाद की पार्टी के अन्दर इन्हें रघुनाथ के छद्म-नाम से जाना जाता था; राजगुरु के नाम से नहीं। पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद, सरदार भगत सिंह और यतीन्द्रनाथ दास आदि क्रान्तिकारी इनके अभिन्न मित्र थे। राजगुरु एक अच्छे निशानेबाज भी थे।
गांधी के विचारों के विपरीत —
राजगुरु क्रान्तिकारी तरीके से अस्त्र-शस्त्रों के बल पर स्वतन्त्रता प्राप्त करना चाहते थे। उनके कई विचार गांधी के विचारों से विपरीत थे। *साण्डर्स वध एवं पुलिस का विशेष अभियान —
19 दिसम्बर, 1928
को राजगुरू ने भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर ब्रिटिश पुलिस ऑफिसर जेपी साण्डर्स का वध किया था। यह वध लाला लाजपत राय की मृत्यु (जो साइमन कमीशन का विरोध करते समय हुई थी) का प्रतिशोध था। राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव का भय ब्रिटिश प्रशासन पर इस कदर हावी हो गया था कि इन तीनों को पकड़ने के लिये पुलिस को विशेष अभियान चलाना पड़ा।
बलिदान की वेदी : फाँसी —
पुलिस अधिकारी के वध के बाद राजगुरु नागपुर में जाकर छिप गये। वहाँ उन्होंने आरएसएस कार्यकर्त्ता के घर पर शरण ली। वहीं पर उनकी भेंट डाॅ॰ हेडगेवार से हुई, जिनके साथ राजगुरु ने आगे की योजना बनायी। इससे पहले कि वे आगे की योजना पर कार्य करते, पुणे जाते समय पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इन्हें भगत सिंह और सुखदेव के साथ 23 मार्च, 1931 को फाँसी दी गयी। तीनों का दाह संस्कार पंजाब के फिरोज़पुर जिले में सतलज नदी के तट पर हुसैनवाला में किया गया। मरते हुए राजगुरु जी को यह संतोष रहा कि बलिदान प्रतिस्पर्धा में वे भगतसिंह से पीछे नहीं रहे।
ऐसे वीर बलिदानी राजगुरु जी को हम सभी सनातनियों का कोटिशः नमन
भारत माता के सपूतों की जीवनी केवल पढ़ने के लिये नहीं; अपितु उनके जीवन से शिक्षा ले धर्म-मार्ग पर अटल-अडिग रहने के लिए होती हैं। नमन है ऐसे सभी वीरों को, जिन्होंने अपना सर्वस्व धर्म व राष्ट्र पर न्योछावर कर दिया