शौर्यगाथा – महानायक राजराजेश्वर श्रीमन्त यशवन्तराव होलकर जी
वो योद्धा जिनको इतिहास में मिटाने की कोशिश की गई लेकिन उनकी वीरगाथा को नहीं मिटा पाए
इतिहास के पनों में दबी एक शौर्यगाथा
इतिहास में आज का दिन
28 अक्टूबर
पुण्यतिथि :
भारतीय स्वतन्त्रता के महानायक राजराजेश्वर श्रीमन्त यशवन्तराव होलकर जी
_”यदि इतिहास के पन्ने पलटकर इस प्रश्न का उत्तर खोजा जाए कि जब अंग्रेज भारत में घुसे, तब सबसे अधिक और सबसे लम्बा संघर्ष उनसे किसने किया? तो उत्तर मिलेगा महाराजा यशवन्तराव होलकर। वामपंथी इतिहासकारों ने एक झूठ प्रचारित कर रखा है कि अंग्रेजों ने राज्य दिल्ली की मुग़ल सल्तनत से लिया, जबकि सत्य यह है कि उस समय देश के अधिकाँश भू-भाग पर हिन्दी स्वराज्य वाले मराठों का नियन्त्रण था। तो आईये जानते हैं अंग्रेजों के भारत में प्रवेश के बाद से निरन्तर उनका प्रतिकार करने वाले राजाधिराज श्रीमन्त यशवन्तराव होलकर की गौरव गाथा को
आरम्भिक जीवन—
पश्चिम मध्यप्रदेश की मालवा रियासत के महाराज यशवन्तराव होलकर का भारत की स्वाधीनता के लिए किया गया योगदान महाराणा प्रताप और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से कहीं कम नहीं है। यशवन्तराव होलकर का जन्म 1776 ई. में हुआ। इनके पिता तुकोजीराव होलकर थे। होलकर साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव के कारण ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया ने यशवन्तराव के बड़े भाई मल्हारराव को मृत्यु की नीन्द सुला दिया। इस घटना ने यशवन्तराव को पूरी तरह से तोड़ दिया था। उनका अपनों पर से विश्वास उठ गया। इसके बाद उन्होंने स्वयं को सशक्त करना आरम्भ कर दिया। ये अपने कार्य में बहुत निपुण व साहसी थे। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 1802 ई. में इन्होंने पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की मिली-जुली सेना को मात दी और इन्दौर वापस आ गए।
अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय राजाओं को एक करने को निरन्तर प्रयत्नशील व अकेले ही अंग्रेजों को पराजित करने वाले स्वातन्त्र्यवीर
इस दौरान अंग्रेज भारत में तेजी से अपने पाँव पसार रहे थे। यशवन्तराव के सामने एक नई चुनौती सामने आ चुकी थी। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराना। इसके लिए उन्हें अन्य भारतीय शासकों की सहायता की आवश्यकता थी। वे अंग्रेजों के बढ़ते साम्राज्य को रोक देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया से एक बार पुनः हाथ मिलाया और अंग्रेजों को खदेड़ने की ठानी। किन्तु पुरानी शत्रुता के कारण भोंसले और सिंधिया ने उन्हें फिर धोखा दिया और यशवन्तराव एक बार फिर अकेले पड़ गए। उन्होंने अन्य शासकों से एक बार फिर एकजुट होकर अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ने का आग्रह किया, किन्तु किसी ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद उन्होंने स्वयं के बल पर अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाने का निश्चय किया। 8 जून, 1804 ई. को उन्होंने अंग्रेजों की सेना को धूल चटाई। फिर 8 जुलाई, 1804 ई. में कोटा से उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ दिया।
रणकौशल
अपने रणकौशल व युद्धनीति से बार बार अंग्रेजों को नाकों चने चबवाने वाले योद्धा—
11 सितम्बर, 1804 ई. को अंग्रेज जनरल वेलेस्ले ने लॉर्ड ल्युक को लिखा कि यदि यशवन्तराव का शीघ्र दमन नहीं किया गया, तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। इसी बात को ध्यान में रखते हुए नवम्बर, 1804 ई. में अंग्रेजों ने दिग पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में भरतपुर के महाराज रंजीत सिंह के साथ मिलकर यशवन्तराव ने अंग्रेजों को उनकी नानी याद दिलाई। यही नहीं इतिहास के अनुसार उन्होंने 300 अंग्रेजों की नाक ही काट डाली थी। यकायक रंजीत सिंह ने भी यशवन्तराव का साथ छोड़ दिया और अंग्रजों से हाथ मिला लिया। इसके बाद सिंधिया ने यशवन्तराव का साहस देखते हुए उनसे हाथ मिलाया। अंग्रेजों की चिन्ता बढ़ गई। लॉर्ड ल्युक ने लिखा कि यशवन्तराव की सेना अंग्रेजों को मारने में बहुत आनन्द लेती है। इसके बाद अंग्रेजों ने यह निर्णय किया कि यशवन्तराव के साथ सन्धि से ही बात सम्भल सकती है। इसलिए उनके साथ बिना शर्त सन्धि की जाए। उन्हें जो चाहिए, दे दिया जाए। उनका जितना साम्राज्य है, सब लौटा दिया जाए। इसके बाद भी यशवन्तराव ने सन्धि को अस्वीकार कर दिया।
कूटनीति
स्वार्थी भारतीय राजाओं के असहयोग के कारण अंग्रेजों से कूटनीतिक सन्धि—
वे सभी शासकों को एकजुट करने में जुटे हुए थे। अन्त में जब भारतीय राजाओं के स्वार्थीपने के कारण उन्हें सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने दूसरी चाल से अंग्रेजों को मात देने की सोची। इसी कारण उन्होंने 1805 ई. में अंग्रेजों के साथ सन्धि कर ली। अंग्रेजों ने उन्हें स्वतन्त्र शासक माना और उनके सारे क्षेत्र लौटा दिए। इसके बाद उन्होंने सिंधिया के साथ मिलकर अंग्रेजों को खदेड़ने की एक और योजना बनायी। उन्होंने सिंधिया को पत्र लिखा, किन्तु सिंधिया ने पुनः धोखा दिया और वह पत्र अंग्रेजों को दिखा दिया। इसके बाद पूरा मामला फिर से बिगड़ गया। यशवन्तराव ने हल्ला बोल दिया और अंग्रेजों को अकेले दम पर मात देने की पूरी तैयारी में जुट गए।
इतिहास में आज का दिन
देहांत
आजीवन स्वतन्त्रता के लिए लड़ते वीर का अल्पायु में देहान्त अंग्रेजों को पराजित करने के लिए उन्होंने भानपुर में गोला बारूद का कारखाना खोला। इस बार उन्होंने अंग्रेजों को पूर्णतया खदेड़ने की ठान ली थी। इसलिए दिन-रात परिश्रम करने में जुट गए थे। निरन्तर परिश्रम करने के कारण उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा, परन्तु उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया, अपने स्वास्थ्य से बेपरवाह लगातार संघर्ष करते रहे यशवंत राव होल्कर का अंतिम समय बहुत पीड़ा दायक गुजरा। ब्रेन ट्यूमर की असहनीय वेदना सहन करते हुए 28 अक्टूबर 1811 को देवोत्थान एकादशी के पवित्र दिन उस भीष्म पराक्रमी, जुझारू, महाराजाधिराज, राज राजेश्वर, यशवंतराव होलकर ने इस दुनिया से विदाई ली। उस दिन राज्य में दीप नहीं जले आमजन को लगा मानो उनके देव सो गए हैं। रेवा नदी के तट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ। राजस्थानी कवि चैन्करण सांदू ने लिखा– हिन्दवाणों हलकों हुओ, तुराकां रहा न तंत, अंग्रेजां ऊछज कियो,जोखभियो जसवंत | अर्थात् हिन्दुस्थान का एकमात्र रक्षक नहीं रहा। हिन्दुओं का बल टूट गया, तुर्क अर्थात् मुसलमान शासक तो पहले ही कमजोर हो चुके थे। यशवन्तराव की मृत्यु पर अब नए शत्रुओं अंग्रेजों ने खुशियाँ मनाई। इस प्रकार एक महान् शासक का अन्त हो गया। एक ऐसे शासक, जिस पर अंग्रेज कभी अधिकार नहीं कर सके। एक ऐसे शासक, जिन्होंने अपनी अल्पायु जीवन को रणभूमि में झोंक दिया। एक ऐसा भारतीय शासक, जिसने स्वयं के बलबूते पर अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पर विवश कर दिया था। एकमात्र ऐसा शासक, जिसका भय अंग्रेजों में स्पष्ट दिखता था। एकमात्र ऐसा शासक जिसके साथ अंग्रेज हर हाल में बिना शर्त समझौता करने को तैयार थे। एक ऐसा शासक, जिसे अपनों ने ही बार-बार धोखा दिया, फिर भी युद्धभूमि में कभी साहस नहीं हारा। यदि भारतीय शासकों ने उनका साथ दिया होता, तो सम्भवतः भारत का इतिहास कुछ और होता, किन्तु ऐसा नहीं हुआ और एक महान् शासक यशवन्तराव होलकर धोखेबाजों, वामपंथियों व लिबराण्डुओं के कारण इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया। उनके बारे में आज भी बहुत कम लोगों को जानकारी है। उनका नाम आज भी लोगों के लिए अज्ञात है। यह उस महान् वीरयोद्धा की कहानी है, जिसकी तुलना विख्यात इतिहास शास्त्री एन॰ एस॰ इनामदार ने ‘नेपोलियन’ से की है। हम ऐसे वीर को उसकी पुण्यतिथि पर बारम्बार नमन करते हैं।
Those warriors who were tried to be erased from history but could not erase their bravery.
A tale of bravery buried in the pages of history Today’s day in history
Today In History
28 October
28 October death anniversary :
Rajrajeshwar Shrimant Yashwantrao Holkar, the great hero of Indian Independence
_”If we turn the pages of history and find the answer to the question that when the British entered India, who fought against them the most and the longest? Then the answer will be Maharaja Yashwantrao Holkar. Leftist historians have propagated a lie that the British The state was taken from the Mughal Sultanate of Delhi, whereas the truth is that at that time most of the land of the country was under the control of Marathas with Hindi self-rule. So let us know about Rajadhiraj Shrimant Yashwantrao, who continuously opposed the British after their entry into India. Holkar’s glory story
Early life-
The contribution of Maharaja Yashwantrao Holkar of Malwa princely state of Western Madhya Pradesh towards India’s independence is no less than that of Maharana Pratap and Rani Laxmibai of Jhansi. Yashwantrao Holkar was born in 1776 AD. His father was Tukojirao Holkar. Due to the increasing influence of Holkar Empire, Gwalior ruler Daulatrao Scindia killed Yashwantrao’s elder brother Malharrao. This incident completely broke Yashwantrao. He lost faith in his own people. After this he started empowering himself. He was very skillful and courageous in his work. This can be estimated from the fact that in 1802 AD, he defeated the combined army of Peshwa Bajirao II of Pune and Scindia and returned to Indore. The freedom fighter who continuously tried to unite the Indian kings against the British and single-handedly defeated the British. During this period the British were rapidly expanding their presence in India. A new challenge had come before Yashwantrao. To free India from the clutches of the British. For this he needed the help of other Indian rulers. They wanted to stop the growing empire of the British. For this, he once again joined hands with Bhonsle of Nagpur and Scindia of Gwalior and decided to drive out the British. But due to old enmity, Bhonsle and Scindia again betrayed him and Yashwantrao once again became alone. He once again urged the other rulers to unite and fight against the British, but no one listened to him. After this, on his own strength, he decided to remind the British about the milk of Chhathi. On June 8, 1804, he defeated the British army. Then on July 8, 1804, he drove out the British from Kota.
TACTICS
Warriors who repeatedly defeated the British with their tactics and strategy – On September 11, 1804, British General Wellesley wrote to Lord Luke that if Yashwantrao was not suppressed soon, he, along with other rulers, would drive the British out of India. Keeping this in mind, the British attacked Dig in November 1804. In this war, Yashwantrao, along with Maharaj Ranjit Singh of Bharatpur, reminded the British of their grandmother. Not only this, according to history he had cut off the noses of 300 Englishmen. Suddenly Ranjit Singh also left Yashwantrao and joined hands with the British. After this, seeing the courage of Yashwantrao, Scindia shook hands with him. The concern of the British increased. Lord Luke wrote that Yashwantrao’s army takes great pleasure in killing the British. After this the British decided that the matter could be resolved only through a treaty with Yashwantrao. Therefore an unconditional treaty should be made with them. Whatever they want, they should be given it. All his empire should be returned. Even after this Yashwantrao rejected the treaty.
DIPLOMACY
Diplomatic treaty with the British due to non-cooperation of selfish Indian kings
He was busy uniting all the rulers. In the end, when he did not get success due to the selfishness of the Indian kings, he thought of defeating the British with another trick. For this reason he made a treaty with the British in 1805 AD. The British considered them independent rulers and returned all their territories. After this, he along with Scindia made another plan to drive out the British. He wrote a letter to Scindia, but Scindia again betrayed him and showed the letter to the British. After this the whole matter worsened again. Yashwantrao raised an alarm and started making full preparations to defeat the British single-handedly.
Today’s day in history
Death
A brave man fighting for freedom all his life died at a young age. To defeat the British, he opened an ammunition factory in Bhanpur. This time he was determined to drive out the British completely. Therefore, he started working hard day and night. Due to continuous hard work, his health also started deteriorating, but he did not pay attention to it, he continued to struggle regardless of his health. Yashwant Rao Holkar’s last days were very painful. Enduring the unbearable pain of brain tumor, on 28th October 1811, on the holy day of Devotthan Ekadashi, that Bhishma, the mighty, combative, Maharajadhiraj, Raj Rajeshwar, Yashwantrao Holkar, bid farewell to this world. On that day, lamps were not lit in the state and the common people felt as if their gods had gone to sleep. His last rites took place on the banks of Rewa river. Rajasthani poet Chainkaran Sandu wrote – Hindwans have been circles, Turakan raha na tant, Angrejans uchaj kiyo, riskabhiyo Jaswant. That is, he was no longer the sole protector of India. The strength of the Hindus was broken, the Turks i.e. the Muslim rulers had already become weak. Now new enemies the British celebrated the death of Yashwantrao. This is how a great ruler came to an end. A ruler over whom the British could never take over. A ruler who sacrificed his short life in the battlefield. An Indian ruler who, on his own strength, had forced the British to suffer. The only ruler whose fear was clearly visible among the British. The only ruler with whom the British were ready to make an unconditional compromise at any cost. A ruler who was repeatedly betrayed by his own people, yet never lost courage on the battlefield. If the Indian rulers had supported him, perhaps the history of India would have been different, but it did not happen and a great ruler Yashwantrao Holkar got lost somewhere in the pages of history due to fraudsters, leftists and liberals. Even today very few people know about him. His name is still unknown to the people. This is the story of that great warrior, whom renowned historian N.S. Inamdar has compared with ‘Napoleon’. We salute such a brave man again and again on his death anniversary.