Deendayal Upadhyay – 25 September
इतिहास में आज का दिन
आज का दिन इतिहास में
25 सितम्बर
जन्म-दिवस
एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय
सुविधाओं में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है,किन्तु अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे।
दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने अलवर बोर्ड, मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाये थे।
14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये,पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान मिला था।
इतिहास में आज का दिन
अपनी मामी के आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। उसमें भी वे प्रथम रहे, पर तब तक वे नौकरी और गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे। इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ। 1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये।
1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये।
1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा. मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गयी। वे एक कुशल संगठक, वक्ता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है।
उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर जमाने लगा।1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर विरोधियों के दिल फटने लगे। 11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। इस प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में उनका निधन हो गया।
Today’s day in history
25 September
Birthday
25 September Deendayal Upadhyay, pioneer of Integral Humanism Anyone can achieve success by growing up in facilities, but it is very difficult to reach the heights by living amidst deprivations. Deendayal Upadhyay, born on September 25, 1916 in the house of his maternal grandfather Pandit Chunnilal Shukla in village Dhankia situated on the Jaipur to Ajmer road, was one such personality. Deendayal ji’s father Shri Bhagwati Prasad was a resident of village Nagla Chandrabhan, district Mathura, Uttar Pradesh. His father died when he was three years old and his mother died when he was eight years old.
Therefore, Deendayal was brought up by his maternal uncle working in the Railways. He always passed in first division. He had scored highest marks in Alwar Board in Class 8, Ajmer Board in Matriculation and Pilani in Intermediate. His younger brother Shivdayal died at the age of 14. In 1939, he completed B.A. in first division from Sanatan Dharma College, Kanpur. passed to. It was here that he came in contact with Sangh’s Uttar Pradesh campaigner Shri Bhaurao Deoras.
After this he started getting drawn towards the Sangh. MA. He came to Agra to do M.A., but due to domestic circumstances, he did not do M.A. Couldn’t complete. He also passed LT examination from Prayag. He stood first in the entire country in the intellectual examination of the third year of the Sangh. Today’s day in history On the request of his aunt, he took the administrative services examination. He was the first in that too, but by then he had made up his mind to surrender everything to the Sangh, freeing himself from the bondage of job and family. Due to this, the maternal uncle who brought him up suffered a lot. On this, Deendayal ji wrote a letter to him and apologized.
That letter is of historical importance. From 1942, his missionary life started from Gola Gokarnath (Lakhimpur, Uttar Pradesh). In 1947, he was made co-provost preacher of Uttar Pradesh. In 1951, Dr. Shyama Prasad Mukherjee left the Union Cabinet in protest against Nehru’s Muslim appeasement policies. He wanted to form a new political party with national ideas. He contacted the then Sarsanghchalak of the Sangh, Shri Guruji. Guruji asked Deendayal ji to support him. In this way ‘Bharatiya Jana Sangh’ was established. Deendayal ji was initially made its Organization Minister and then General Secretary. After the death of Dr. Mukherjee under mysterious circumstances in the Kashmir Satyagraha of 1953, the entire responsibility of Jan Sangh fell on Deendayal ji.
He was also a skilled organizer, speaker, writer, journalist and thinker. It was he who founded Rashtradharma Prakashan in Lucknow. In the name of Integral Humanism, he gave a new economic and social thinking, which is capable of rising above the inconsistencies of communism and capitalism and showing the right direction to the country. Under his leadership, Jan Sangh started establishing its foothold in new areas every day. In 1967, he was unanimously made the president in the Calicut session. The name of Jan Sangh and Deendayal ji became famous everywhere. Seeing this, the hearts of the opponents started bursting. On February 11, 1968, he was going from Lucknow to Patna. On the way, someone murdered him and threw his body down at Mughalsarai railway station. Thus, he died under very mysterious circumstances.