आत्मबोध : कर्म और मुक्ति
दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में ईश्वर की आराधना के साथ-साथ कर्म करने का उपदेश
अग्निमिन्धानो मनसा धियꣳ सचेत मर्त्यः। अग्निमिन्धे विवस्वभिः।।
(सामवेद— मन्त्र १९)
मन्त्रार्थ—
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (मनसा) मन से (अग्निम्) हृदय में छिपे परमात्मा-रूप अग्नि को (इन्धानः) प्रदीप्त अर्थात् प्रकट करता हुआ (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्य (धियम्) कर्म को (सचेत) सेवे—यह वैदिक प्रेरणा है। उस प्रेरणा से प्रेरित हुआ मैं (विवस्वभिः) अज्ञान को विध्वस्त करनेवाली, आदित्य के समान भासमान मनोवृत्तियों से (अग्निम्) ज्योतिर्मय परमात्माग्नि को तथा कर्म की अग्नि को (इन्धे) प्रदीप्त करता हूँ, हृदय में प्रकट करता हूँ।।
द्वितीय—यज्ञाग्नि के पक्ष में। यज्ञकर्म के लिए प्रेरणा है। (मनसा) श्रद्धा के साथ (अग्निम्) यज्ञाग्नि को (इन्धानः) प्रदीप्त करता हुआ (मर्त्यः) यजमान मनुष्य (धियम्) यज्ञविधियों को भी (सचेत) करे—यह वेद का आदेश है। तदनुसार मैं भी यज्ञकर्म करने के लिए (विवस्वभिः) प्रातः सूर्यकिरणों के उदय के साथ ही (अग्निम्) यज्ञाग्नि को (इन्धे) प्रदीप्त करता हूँ। इससे यह सूचित होता है कि प्रातः यज्ञ का समय सूर्यकिरणों का उदय-काल है।।