महाराणा प्रताप ( MAHARANA PRATAP )
महाराणा प्रताप का जन्म , निधन , राज्याभिषेक व उनके द्वारा लड़े गए युद्ध जिनको फ़र्ज़ी इतिहासकारों द्वारा दबाने व सच्चाई छुपाने का प्रयास किया गया ।
राज्याभिषेक – फाल्गुन 9 ,1493
28 फ़रवरी 1572
निधन -पौष 29
19 जनवरी 1597 चावण्ड मेवाड़ में हुआ ।
जन्म -वैशाख 19 ,9 मई 1540
अंग्रेज़ी तारीख़ के हिसाब से 9 मई 1540 को वर्तमान राजस्थान के कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जयवन्ताबाई के घर हुआ था।
लेखक जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के कुम्भलगढ में हुआ था। इतिहासकार विजय नाहर के अनुसार राजपूत समाज की परंपरा व महाराणा प्रताप की जन्म कुण्डली व कालगणना के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म पाली के राजमहलों में हुआ।
महाराणा प्रताप का जन्म पाली जिले में हुआ था और उनका ननिहाल पाली में था मुंशी देवी प्रसाद द्वारा रचित सरस्वती के भाग 18 में सात पंक्तियां में ताम्र पत्र उल्लेखित है
और सोमानी रचित पुस्तक में महाराणा प्रताप द्वारा ब्राह्मणों को दान की गई भूमि का उल्लेख है इन स्रोतों से सत्य है की महाराणा प्रताप के ननिहाल की भूमि का उल्लेख पाली का करना उचित है ।
अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गया,
इसी क्रम में मानसिंह (1573 ई. में ), भगवानदास ( सितम्बर, 1573 ई. में ) तथा राजा टोडरमल ( दिसम्बर,1573 ई. ) प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश किया,
इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
त्याग, स्वाभिमान, वीरता, शौर्य, राष्ट्रभक्ति, सुशासन और स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष के प्रतीक हिन्दू हृदय सम्राट् महाराणा प्रताप के विषय में वामी-इस्लामी फर्जी इतिहासकारों द्वारा फैलाई गई कुछ भ्रान्तियाँ,
जिनको हर हिन्दू के मन से दूर किया जाना चाहिए हल्दीघाटी युद्ध की भ्रान्तियाँ और उनका निराकरण अकबर के दरबार का इतिहासकार अब्दुर क़ादर बदायुँनी ने मुन्तकब उत्त तवारिख नामक पुस्तक लिखी।
बदायुँनी वर्णन करता है, इस युद्ध में मुगलों की सेना की संख्या 5000 व मेवाड़ी सेना की संख्या 3000 थी।
हल्दीघाटी युद्ध में दर्रे में पहला हमला इतना भयंकर हुआ था कि हमारी सेना (मुगलों की सेना) बनास नदी के किनारे 7 मील पीछे भागी थी। एक बात बताइए हारने वाली सेना भागती है या जीतने वाली बदायुँनी वर्णन करता है,
बदायुँनी ने आसफ खाँ से पूछा, मारना किसे है?
हमारी सेना भी आ रही है और मेवाड़ की सेना भी आ रही है। तो आसफ खाँ ने कहा आँखें बन्द करके तीर चला दो, जिस भी तरफ का राजपूत मरेगा इस्लाम ही मजबूत होगा।
बदायुँनी लिखता है, युद्ध के बाद गोगुन्दा में जब मुग़ल सेना ठहरी थी, तो उनमें इतना डर था कि प्रताप की सेना कहीं रात में हमला न कर दें इसलिए चारों तरफ दीवार चिनवायी थी।”
अब सोचने वाली बात ये है कि जीता हुआ पक्ष डर में रहता है या हारा हुआ पक्ष। बदायुँनी पुनः लिखता है, जब मुगल सेना वापस गोगुन्दा से अजमेर जा रही थी (भीषण गर्मी में) तब मेवाड़ी सेना ने हमारी हालत खराब कर दी थी।
हम जगह-जगह गाँव में भीलों द्वारा लूटे जा रहे थे।” अब बताइए कि जीते हुए पक्ष को कौन लूट सकता है? बदायुँनी यह भी लिखता है कि, जब मानसिंह और आसफ खाँ युद्ध के बाद अकबर के दरबार में पहुँचते हैं,
तो अकबर उन दोनों का दरबार में आना बन्द करवा देता है।” भला अपने जीते हुए सेनापतियों को दरबार से बाहर निकालने का काम कौन-सा राजा करता है?
जून, १५७६ (1576)— हल्दीघाटी हार जाने के बाद अक्टूबर, १५७६ (1576) में अकबर स्वयं मेवाड़ पर आक्रमण करता है। हल्दीघाटी युद्ध के तुरन्त बाद मुगल शासक को मेवाड़ पर आक्रमण क्यों करना पड़ा?
यह बात सीधे-सीधे दर्शाती है कि हल्दीघाटी युद्ध में विजय महाराणा प्रताप की हुई थी। हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा ने एक वार में बहलोल खाँ को घोड़े समेत दो हिस्सों में चीर दिया।
कवि ने कहा जरासंध बहलोल के वध में ये वति रेख, भीम कियो दो भुज नते, पाथल ने करे एक” (स्रोत: पाथल — राणा प्रताप)
हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप के इतने ताम्रपत्र मिले हैं, जो यह बताते हैं कि प्रताप ने वह भूमि लोगों को दान की थी। संताणा का ताम्रपत्र, ओड़ा गाँव का ताम्रपत्र, मोहियाचारयण का ताम्रपत्र, मण्डेर वाला ताम्रपत्र।
ये सब इस ओर इंगित करते हैं कि हल्दीघाटी के आस-पास की भूमि महाराणा प्रताप के पास थी, तभी तो उन्होंने दान की। यदि प्रताप हारे होते तो वे भूमि दान कैसे दे सकते थे?
वो युद्ध जिसे इतिहास में लगभग मिटा दिया गया
देवेर युद्ध ( मेवाड़ का मैराथन )
हल्दीघाटी युद्ध को तो अनिर्णायक बताकर गुमराह किया गया व एक महत्वपूर्ण युद्ध दिवेर के युद्ध को इतिहास से ही मिटा दिया गया हमारे वामी-इस्लामी स्वघोषित इतिहासकारों द्वारा।
अगले भाग में हम तब अकबर और आज वामी-इस्लामी इतिहासकारों की नींद उड़ाने वाले दिवेर के अद्भुत युद्ध का इतिहास सामने रखेंगे
वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के विषय में हिन्दू-घृणा से भरे वामी-इस्लामी इतिहासकारों की फैलाई भ्रान्तियों को हिन्दुओं के मन से निकालने के लिए कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को सामने लाने का प्रयास किया गया है,
ताकि आत्मकुण्ठा में डूबे हिन्दू महाराणा के गौरवपूर्ण इतिहास से परिचित होकर गौरवान्वित हो उनके गुणों को धारण करने के लिए प्रयासरत हों।
२ दिवेर का ऐतिहासिक युद्ध, जिसमें हुई भयंकर पराजय से अकबर आजीवन राणा से भयाक्रान्त रहा : हल्दीघाटी युद्ध के बाद शाहबाज खाँ को प्रताप के विरुद्ध बार-बार भेजा गया, परन्तु वह असफल हुआ।
अब्दुल रहीम खानखाना — बार-बार भेजा गया— असफल। चार ठिकाने— दिवेर, देबारी, देसुरी, देवल— महाराणा प्रताप को पर्वतों में घेरा जाता है।
दिवेर — राजसमन्द से अजमेर जाने का मार्ग, जहाँ से रसद आया करती थी एवम् जहाँ पर सुल्तान खाँ स्वयं अपनी चौकी लगाकर बैठा था। दशहरा का दिन— शस्त्र पूजा के बाद तलवार म्यान में न रखकर छोटे-मोटे युद्ध करने की परम्परा थी,
जिसे टीका दौड़ प्रथा कहा जाता था। महाराणा प्रताप ने मुगलों के चार ठिकानों में से सबसे बड़ा व मजबूत ठिकाना दिवेर पर आक्रमण करने को चुना। सारे मन्त्रियों की राय थी कि देबारी, देसुरी, देवल कमजोर ठिकाने हैं,
उन पर आक्रमण करना चाहिए, जिससे टीका दौड़ भी हो जाएगी; परन्तु महाराणा ने कहा, मुगलों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि दिवेर पर आक्रमण हो जाएगा, इसलिए हम दिवेर पर आक्रमण करेंगे।
अक्टूबर १५८२ का दिवेर आक्रमण भारत की प्रथम सर्जिकल स्ट्राइक मानी जा सकती है, जिसमें मुगलों की सेना पर इतना भयंकर आक्रमण किया गया कि एक भी मुगल जीवित नहीं लौट सका।
जेम्स टॉड के द्वारा दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मैराथॉन की संज्ञा दी गई है।
इतने भयंकर युद्ध में बाँसवाड़ा, ईडर व प्रतापगढ़ की सेना महाराणा प्रताप की ओर से लड़ी थी, जिससे प्रताप की संगठनवादी छवि उजागर होती है।
इसलिए वामपंथियों इस्लामियों के लिखे फर्जी इतिहास में इतने महान् युद्ध का वर्णन बहुत छोटा है या फिर वर्णन है ही नहीं।
इसी दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप के पुत्र महाराणा अमरसिंह ने मुगल सेनापति सुल्तान खाँ को भाला मारा, तो सुल्तान खाँ को चीरते हुए भाला धरती में धँस गया।
जब महाराणा प्रताप ने घायल सुल्तान खाँ से अन्तिम इच्छा पूछी, तो उसने उस योद्धा को देखने की इच्छा व्यक्त की जिसने उसे भाला मारा था। प्रताप ने समय बचाने के लिए यह कहा कि उनके पास खड़े सैनिक ने ही भाला मारा है,
तो सुल्तान खाँ ने कहा, “यह हो ही नहीं सकता; क्योंकि उस बालक की आँखों में जो गुस्सा है, मैंने देखा है। वह अलग योद्धा है, उसे बुलाओ। जब अमरसिंह को बुलाया गया और राणा ने कहा कि यह मेरा पुत्र है, तो सुल्तान खाँ ने कहा धन्य हो महाराणा।
दिवेर के युद्ध के ठीक अगले वर्ष १५८३ में सिरोही के राव सरताण ने दांताणी के युद्ध में मुगलों को उसी प्रकार मारा।
यह बात ज्ञात होने पर महाराणा ने प्रसन्नता में अपनी पौत्री का विवाह राव सरताण से करने का निर्णय लिया। दिवेर युद्ध के बाद मुगल सेनापतियों ने भय से मेवाड़ आना बन्द कर दिया।
१५८५ में जगन्नाथ कच्छवाहा ने अन्तिम आक्रमण किया मेवाड़ पर कुछ हाथ ना लगने के कारण वह चला गया।
इसके बाद मेवाड़ में मुगलों के आक्रमण बन्द हो गये। १२ वर्षों तक अकबर का कोई आक्रमण नहीं हुआ
भ्रांति ३ : क्या वामी-इस्लामी इतिहास भ्रष्टकों के फ़र्ज़ी इतिहास पर अंधा विश्वास करने के कारण हम ये मान गलत नहीं कर रहे कि महाराणा के इतने दुर्दिन आए कि उन्हें परिवार को घास की रोटी खानी पड़ी?
कुम्भलगढ़ से ऋषभदेव तक ९० मील का क्षेत्र तथा देबारी से सिरोही तक ७० मील चौड़ा क्षेत्र छप्पन, बानसी से लेकर धारियावाद का क्षेत्र राणा प्रताप के पास था। इतने बड़े क्षेत्र में इतनी अधिक मात्रा में कृषि होती थी कि घास की रोटियों वाली बात सार्थक हो ही नहीं सकती।
भ्रांति ४ : क्या हल्दीघाटी की कथित हार के कारण महाराणा प्रताप एक समय इतने वैभवहीन हो गए थे कि केवल भामाशाहजी के दान के कारण वे अपनी सेना पुनर्गठित कर पाए?
सभी जानते हैं कि भामाशाहजी ने प्रताप को अपनी सम्पत्ति दी थी। भामाशाह के पिता भारमल पहले ही मेवाड़ आ गए थे, जो राणा प्रताप के खजाञ्ची हुआ करते थे, तो भामाशाह के पास जो भी धन था,
वह राणा प्रताप व मेवाड़ का खजाना था, इस बात को नकारा नहीं जा सकता। हालांकि उस खजाने व दान में भामाशाह एवम् उनके भाई ताराचन्द की स्वयं की निजी सम्पत्ति भी थी, इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता।
भामाशाह व ताराचन्द को स्वामी भक्ति व निष्ठा के लिए युगों-युगों तक याद किया जाना चाहिए। भामाशाह ने मृत्यु के समय अपनी पत्नी से कहा, बही देकर जा रहा हूँ, इसमें मेवाड़ का पूरा हिसाब है, महाराणा तक पहुँचा देना।
ऐसे व्यक्ति की निष्ठा व ऐसे निष्ठावान व्यक्ति को सदैव याद किया जाना चाहिए। इस श्रृंखला में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के विषय में हिंदू घृणा से भरे वामी-इस्लामी इतिहासकारों
की फैलाई भ्रांतियों को हिंदुओं के मन से निकालने के लिए कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को सामने लाने का प्रयास किया गया है ताकि आत्मकुंठा में डूबे हिंदू महाराणा के गौरवपूर्ण इतिहास से परिचित होकर गौरवान्वित हो उनके गुणों को धारण करने के लिए प्रयासरत हों।
महाराणा प्रताप कभी हारें नहीं ।
MAHARANA PRATAP : THE UNSUNG WARRIOR
Coronation – Falgun 9,1493
28 February 1572
Died – Paush 29 Happened on 19 January 1597 in Chavand, Mewar.
Birth – Vaishakh 19, 9 May 1540
According to the English date, it was born on 9 May 1540 in the house of Maharana Udai Singh and Mata Rani Jaywantabai in Kumbhalgarh of present Rajasthan.
According to author James Todd, Maharana Pratap was born in Kumbhalgarh, Mewar.
According to historian Vijay Nahar, according to the tradition of Rajput society and Maharana Pratap’s horoscope and calendar, Maharana Pratap was born in the royal palaces of Pali.
Maharana Pratap was born in Pali district and his maternal home was in Pali. In Part 18 of Saraswati written by Munshi Devi Prasad, the copper plate is mentioned in seven lines and in the book written by Somani,
there is mention of the land donated by Maharana Pratap to the Brahmins. It is true from the sources that it is appropriate to mention Pali as the land of Maharana Pratap’s maternal grandfather.
Akbar wanted to bring Pratap under his control without war, hence Akbar appointed four ambassadors to convince Pratap, in which Jalal Khan first went to Pratap’s camp in September 1572 AD, in the same order,
Mansingh (in 1573 AD), Bhagwandas (in September, 1573 AD) and Raja Todarmal (in December, 1573 AD) arrived to convince Pratap, but Rana Pratap disappointed all four,
thus Rana Pratap refused to accept the subordination of the Mughals, which resulted in The historic battle of Haldi Ghati took place.
Some misconceptions spread by leftist-Islamic fake historians about the Hindu heart emperor Maharana Pratap, a symbol of sacrifice, self-respect, bravery, bravery, patriotism, good governance and struggle for freedom,
which should be removed from the mind of every Hindu. Haldighati war Misconceptions and their resolution Abdur Qader Badayuni, the historian of Akbar’s court, wrote a book named Muntakab ut Tawarikh.
Badayuni narrates, in this war the number of Mughal army was 5000 and the number of Mewari army was 3000.
In the battle of Haldighati, the first attack in the pass was so fierce that our army (Mughal army) ran back 7 miles on the banks of Banas river.
Tell me one thing, does the losing army run away or the winning one? Badayuni narrates, Badayuni asked Asaf Khan, who has to be killed? Our army is also coming and Mewar’s army is also coming.
So Asaf Khan said, close your eyes and shoot the arrow, whichever side’s Rajput dies, Islam will be stronger.
Badayuni writes, when the Mughal army was stationed in Gogunda after the war, they were so afraid that Pratap’s army might attack at night, so they had built walls all around.
Now the thing to think about is whether the winning side lives in fear or the losing side. Badayuni again writes,
when the Mughal army was going back from Gogunda to Ajmer (in the scorching heat), the Mewari army made our condition worse. We were being looted by Bhils at various places in the village.
” Now tell who can plunder the winning side? Badayuni also writes that, when Mansingh and Asaf Khan reach Akbar’s court after the war, Akbar stops both of them from coming to the court.
Which king does the work of throwing out his conquered generals from the court?
June, 1576 – After losing Haldighati, Akbar himself attacks Mewar in October, 1576. Why did the Mughal ruler have to attack Mewar immediately after the Haldighati battle?
This directly shows that Maharana Pratap was victorious in the Haldighati battle. In the battle of Haldighati, Maharana tore Bahlol Khan into two parts along with his horse in one blow.
The poet said, “In the killing of Jarasand Bahlol, Ye Vati Rekh, Bhim did two arms, Pathal did one” (Source: Pathal – Rana Pratap).
After the Haldighati war, so many copper plates of Maharana Pratap have been found, which show that Pratap had donated that land to the people.
Copper plate of Santana, copper plate of Oda village, copper plate of Mohiyacharayan, copper plate of Mander.
All this indicates that the land around Haldighati was with Maharana Pratap, that is why he donated it. If Pratap had lost, how could he donate the land?
The war that was almost erased from history
Battle of Dewar (Marathon of Mewar)
The Haldighati war was misled by saying that it was inconclusive and the important war of Diwar was erased from history by our leftist-Islamic self-proclaimed historians. In the next part,
we will present the history of Akbar then and the amazing battle of Diwar which gives sleepless nights to leftist-Islamic historians today,
in order to remove from the minds of Hindus the misconceptions spread by leftist-Islamic historians filled with Hindu hatred about the brave martyr Maharana Pratap.
An attempt has been made to bring out some historical facts, so that Hindus immersed in self-doubt can become proud after getting acquainted with the glorious history of Maharana and try to imbibe his qualities.
2 The historical battle of Diwar, in which Akbar remained in fear of Rana throughout his life due to the terrible defeat: After the Haldighati battle, Shahbaz Khan was repeatedly sent against Pratap, but he failed.
Abdul Rahim Khan khana — sent again and again — unsuccessful. Maharana Pratap is surrounded by four hideouts – Diwar, Debar, Desuri, Deval – in the mountains.
Diwar – the route from Rajasamand to Ajmer, from where supplies used to come and where Sultan Khan himself was sitting with his post.
Day of Dussehra – After Shastra Puja, there was a tradition of fighting small battles without keeping the sword in its sheath, which was called Tika Jadu Pratha.
Maharana Pratap chose to attack Diwar, the largest and strongest among the four Mughal bases. All the ministers were of the opinion that Debar,
Desuri, Deval are weak places, they should be attacked, which will also lead to vaccine race; But Maharana said, the Mughals would never have thought that Diwar would be attacked, hence we will attack Diwar.
The Diwar attack of October 1582 can be considered as India’s first surgical strike, in which the Mughal army was attacked so fiercely that not a single Mughal could return alive. T
he Battle of Diwar has been called the Marathon of Mewar by James Todd.
In such a fierce war, the armies of Banswara, Idar and Pratapgarh fought on behalf of Maharana Pratap, which highlights Pratap’s organisational image.
That is why in the fake history written by leftist Islamists, the description of such a great war is very short or there is no description at all.
In the battle of this river, Maharana Amar Singh, son of Maharana Pratap, hit the Mughal commander Sultan Khan with a spear, and the spear pierced Sultan Khan and sank into the earth.
When Maharana Pratap asked the injured Sultan Khan for his last wish, he expressed his wish to see the warrior who had speared him.
To save time, Pratap said that the soldier standing near him had thrown the spear, then Sultan Khan said, “This cannot be possible; Because I have seen the anger in that child’s eyes.
He is a different warrior, call him that. When Amar Singh was called and the Rana said that he was my son, Sultan Khan said, “Blessed be you, Maharana.”
In 1583, the year after the Battle of Diwar, Rao Sartan of Sirohi defeated the Mughals in the same manner in the Battle of Dantean. On knowing this, Maharana happily decided to marry his granddaughter to Rao Sartaj.
After the Battle of Diwar, Mughal generals stopped coming to Mewar out of fear. In 1585, Jagannath Kachvaha made his last attack on Mewar and left as he could not capture anything.
After this the Mughal attacks in Mewar stopped. There was no attack by Akbar for 12 years
Misconception 3: Are we not wrong in believing that due to blind belief in the fake history of Leftist-Islamic corruptors, Maharana faced such difficult times that his family had to eat grass?
Rana Pratap had an area of 90 miles from Kumbhalgarh to Rishabhdev and 70 miles wide area from Debari to Sirohi, Chhappan, Bansi to Dhariyavad area.
There was so much agriculture in such a large area that the talk about grass-fed bread could not be meaningful.
Myth 4: Did Maharana Pratap become so devoid of glory due to the alleged defeat of Haldighati that he was able to reorganise his army only because of Bhamashahji’s donation?
Everyone knows that Bhamashahji had given his property to Pratap. Bhamashah’s father Bharmal had already come to Mewar,
who used to be Rana Pratap’s treasurer, so whatever money Bhamashah had was the treasure of Rana Pratap and Mewar, this cannot be denied.
Although Bhamashah and his brother Tarachand’s own personal property was also included in that treasure and donation,
this also cannot be denied. Bhamashah and Tarachand should be remembered for ages for their devotion and loyalty to Swami.
At the time of his death, Bhamashah said to his wife, I am leaving with the book, it contains the complete account of Mewar, please send it to Maharana.
The loyalty of such a person and such a loyal person should always be remembered.
In this series, an attempt has been made to bring out some historical facts to remove from the minds of Hindus the misconceptions spread
by leftist-Islamic historians filled with Hindu hatred about the brave Shiromani Maharana Pratap,
so that the self-confused Hindus can understand the glorious history of the Maharana. Be proud to know them and try to imbibe their qualities.
Maharana Pratap never lost.