जन्म जयन्ती – श्रीमैथिलीशरण गुप्त
आज का दिन इतिहास में
०३ अगस्त: जन्म जयन्ती – धर्मनिष्ठ, संस्कृतिनिष्ठ, राष्ट्रकवि श्रीमैथिलीशरण गुप्त*
*आरम्भिक जीवन एवं हिन्दी साहित्य जगत् में पदार्पण:*
राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त का जन्म श्रावण शुक्ल द्वितीया संवत् १९४३ विक्रमी अर्थात् ०३ अगस्त, सन् १८८६ ई॰ को झाँसी जिले के चिरगाँव में पिता सेठ रामचरण जी एवं माता काशीबाई जी के घर हुआ था। इनके पिता श्रीराम के अनन्य भक्त और सुकवि थे। गुप्तजी को राम-भक्ति तथा कवित्व प्रतिभा दोनों पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त हुईं।
प्रारम्भिक शिक्षा के बाद स्वाध्याय से ही इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। गुप्तजी ने १५-१६ वर्ष की अल्पायु में ही काव्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले *वैश्योपकारक* नामक जातीय पत्र में प्रकाशित होती थीं। कुछ समय पश्चात् वे आ॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आए और द्विवेदी जी द्वारा प्रकाशित *सरस्वती* पत्रिका से हिन्दी साहित्य जगत् में प्रवेश किया। आ॰ द्विवेदी ने गुप्तजी की काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर उनकी रचनाओं की भाषा एवं भावों का परिशोधन किया, जिस कारण गुप्तजी ने आ॰ द्विवेदी को अपना साहित्यिक गुरु माना।
*गुप्तजी की राष्ट्रभक्ति:*
गुप्तजी ने एम॰ के॰ गांधी के साथ स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लिया और जेल-यात्रा भी की।
गुप्तजी ने भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता एवं अमरत्व का उद्घोष किया है। उनकी धारणा है कि अन्त में समस्त संस्कृतियाँ इसी संस्कृति (भारतीय संस्कृति) में विलीन हो जाएँगी। *सिद्धराज* में उनका कथन है—
_*आर्य-भूमि अन्त में रहेगी आर्य-भूमि ही,*_
_*आकर मिलेंगी यहीं संस्कृतियाँ सभी,*_
_*होगा एक विश्व-तीर्थ भारत की भूमि का।*_
*गुप्तजी का साहित्यिक परिचय:*
गुप्त जी का दृष्टिकोण व्यापक तथा मानवतावादी था। अतः वह किसी वाद विशेष के अनुगामी नहीं बने। गुप्तजी ने लगभग सभी विषयों पर लिखा है। उनके प्रमुख विषय स्वदेश-प्रेम, राष्ट्रीय-ऐक्य, समाज-सुधार, नारी-उत्थान, समाजवाद, अछूतोद्धार, ग्रामोत्थान, सांस्कृतिक गौरवगान, लोक-कल्याण आदि हैं। गुप्तजी प्रारम्भ में ब्रजभाषा में रचनाएँ किया करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने खड़ीबोली को अपनाया और अपनी रचनाओं में साहित्यिक व परिष्कृत खड़ी बोली का उपयोग करने लगे।
*गुप्तजी की रचनाएँ*
गुप्तजी ने मौलिक एवं अनूदित दोनों प्रकार की रचनाएँ लिखी हैं। इनकी *प्रमुख मौलिक रचनाएँ* हैं—
साकेत, यशोधरा, द्वापर, भारत भारती, जय भारत, पंचवटी, झंकार, जयद्रथ वध, त्रिपथगा, कुणाल गीत, नहुष, विश्व वेदना, विष्णु प्रिया, शकुंतला, तिलोत्तमा, चन्द्रहास, स्वदेश संगीत, हिन्दू, शक्ति, गुरुकुल, मंगल-घट, अर्जुन और विसर्जन, सिद्धराज, हिडिंबा, पृथ्वीपुत्र रत्नावली आदि।
अनूदित काव्य ग्रन्थों में गुप्तजी ने बंगला, संस्कृत और अंग्रेजी की विभिन्न कृतियों का काव्यानुवाद किया है। उनकी कुछ *प्रमुख अनूदित रचनाएँ* हैं—
वीरांगना, मेघनाथ वध, स्वप्न-वासवदत्ता, गीतामृत, दूतघटोत्कच, पलासी का युद्ध, गृहस्थ गीता, विरहिणी ब्रिजांगना आदि।
*गुप्त जी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना साकेत महाकाव्य ही है। साकेत का अर्थ होता है “अवध” या “अयोध्या”। साकेत धाम श्रीरामचन्द्र जी का पारलौकिक धाम भी माना जाता है।*
साकेत में गुप्तजी ने सम्पूर्ण रामायण का ही वर्णन किया है, परन्तु उन्होंने साकेत को स्त्रीप्रधान या नायिका प्रधान महाकाव्य बनाया है। जिसमें उन्होंने रामायण की स्त्री पात्रों को महत्त्वपूर्ण भूमिका देकर उनका चरित्र उजागर किया है। विशेष रूप से उन्होंने उर्मिलाजी और कैकेयीजी के चरित्रों का उद्घाटन किया है।
साकेत को पढ़ कर हम उनकी काव्य प्रतिभा का अनुमान मात्र ही लगा सकते हैं।
*साकेत में राष्ट्रीयता की भावना को भी विशेष बल मिला है।* यह काव्य प्राचीन जीवन मूल्यों के अनुरूप होते हुए भी आधुनिकता की झलक देता है। युग संस्कृति को चित्रित करने का कवि-प्रयास इस रचना को अनूठी बना देता है।
साकेत की भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है। अधिकांशतः इन्होंने सवैया छन्द का ही प्रयोग किया है। इसकी शैली प्रबन्धात्मक है, साथ-ही इसमें गीति-शैली का भी प्रयोग हुआ है, जिसके अन्तर्गत कुछ गीत भी आते हैं।
*गुप्तजी की उपलब्धियाँ व उपाधियाँ:
१)पद्मभूषण, २)हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, ३)मंगला प्रसाद पारितोषिक, ४)साहित्य वाचस्पति, ५)डी.लिट्. की उपाधि।
गुप्तजी को *हिन्दी साहित्य का युग प्रवर्तक कवि, प्रतिनिधि कवि, राष्ट्रकवि, महाकवि, द्विवेदी-युग के शीर्ष फल, आधुनिक युग के वैतालिक, भारतीय संस्कृति के पुरस्कर्त्ता* इत्यादि विशेषणों से अलङ्कृत किया जाने लगा। खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी गुप्तजी को दिया जाता है।